गुदड़ी के लाल थे दुर्गेश


-वेदव्यास, जयपुर

सृजन और संघर्ष के मेरे जीवन में जब भी मुझे दुर्गेश की याद आती है अथवा चूरू की याद आती है तो सहसा लगता है कि- कथाकार प्रेमचंद की चेतना का वहां कहीं सही-सलामत है। सन् 1973 से लेकर 2007 तक दुर्गेश, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ में मेरे साथी रहे और चूरू जिले में साहित्य के उद्देश्यों को लेकर उन्होंने अनवरत प्रतिबद्धता से सामाजिक सरोकारों को आगे बढ़ाया। महाजनी सभ्यता के इस जनपद में जन संस्कृति को युवा रचनाकारों के बीच स्थापित करने का जो सृजन और संवाद दुर्गेश ने किया उसकी कोई दूसरी मिसाल अब हमारे साथ नहीं है।
25 मार्च, 1952 ई. से 18 नवम्बर, 2007 ई. तक का दुर्गेश का जीवन एक सांस्कृतिक कार्यकर्त्‍ता का सफरनामा ही है। राजस्थानी और हिन्दी भाषा-साहित्य में दुर्गेश को एक कथाकार के रूप में जाना जाता है। कोई दो दशक पहले उनकी कथा पुस्तक 'कालपात्र` की भूमिका में कथाकार कमलेश्वर ने ठीक ही लिखा था कि- दुर्गेश एक गुदड़ी का लाल है और प्रेमचंद की परम्परा का सिपाही है। प्रगतिशील साहित्य चेतना की मशाल वह जीवनभर थामे रहे। कुर्ता-पायजमा और चप्पल ही उनकी पहचान बन गई थी और मैंने कभी उनमे कोई वैचारिक विचलन नहीं देखा। छोटी-सी सरकारी नौकरी करते हुए भी वह सांस्कृतिक आयोजनों की आधारशिला बनाते रहते थे और कहा करते थे कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम कहां हो, अपितु महत्वपूर्ण यह है कि तुम क्या कर रहे हो।
साहित्यक मित्रों के प्रति दुर्गेश बहुत समर्पित और भावुक थे तथा नवोदित रचनाकारों के लिए संवेदनशील थे। मुझे पता है कि शेखावाटी अंचल में धनपतियों की सेवा-चाकरी की एक पुरानी साहित्य परम्परा है लेकिन दुर्गेश पूरी तरह अक्खड़ और फक्खड़ तथा एकला चलो रे की पवित्रता से सृजन और व्यवहार करते थे। मैं जब-जब राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर और राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का अध्यक्ष रहा तो वह कहा करते थे, ''प्रगतिशील साहित्यकारों को अब इन अकादमियों से कुछ भी पाना कठिन हो जायेगा क्यों कि वेद व्यासजी तो खुद प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री हैं।``
मुझे याद है कि जब साहित्य में सामाजिक सरोकारों का दौर था तब मेरे और दुर्गेश के निमंत्रण पर सुप्रसिद्ध लेखक भीष्म साहनी, कमलेश्वर और डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय सरीखे साथी अपनी जेब के किराये-भाड़े से चूरू आये थे और भाषा, साहित्य और संस्कृति की अलख जगायी थी।
मैं इस बात का गवाह हूं कि दुर्गेश ने साहित्य और समाज में अपनी पहचान बनाई थी और साहित्य के बाजार में विचार और व्यवहार ही उनकी ताकत थी। कम बोलना और अधिक तोलना उनका स्वभाव था। मेरी रचनाओं को यत्र-तत्र पढ़कर वह मुझे नियमित प्रतिक्रिया का पत्र भी लिखा करते थे और उदारता से गुण-दोष बताते थे। दुर्गेश एक अच्छे अनुवादक भी थे तो कुशल संयोजक भी थे। पर्दे के पीछे रहकर काम करना और युवा रचनाकारों को आगे बढ़ाना उन्हें अच्छा लगता था। उनके व्यंग्य और लघुकथाएं पढ़कर मुझे अक्सर लगता है कि वह जैसा कहते थे वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा दिखते भी थे।
चूरू ही उन्हें इतना प्रिय और प्रगाढ़ था कि कहीं बाहर आना-जाना उन्हें अधिक पसंद नहीं था। चूरू में दुर्गेश का पर्याय दुर्गेश ही थे। मैं किस-किस का उल्लेख करूं- क्योंकि चूरू जनपद की युवा पीढ़ी को साहित्य की प्रगतिशील चेतना से जोड़ने में उनकी ईमानदार भूमिका रही है। राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के संघर्ष में लम्बे समय तक दुर्गेश हमारे साथी रहे हैं और मैं उनकी विनम्र साधना को आज भी आदर करता हूं। उनका जीवन तपती रेत पर नंगे पांव का सफर जैसा था और उनका सृजन राजस्थानी लोकजीवन की अर्न्तकथा की तरह है। दुर्गेश की रचनाओं में शब्दों की मितव्ययीता से प्रयोग इनकी भाषा-शैली को मूल्यवान बनाते हैं और राजस्थानी भाषा की आंचलिकता उन्हें साहित्य के अर्न्तमन से जोड़ती है। दुर्गेश एक मूल्यवान लेखक के रूप में हमें इसीलिये बार-बार याद आयेंगे कि वह एक खुली आंख का सपना देखते थे और जीवन के यथार्थ और भ्रम को अपने सृजन-सरोकारों से जोड़ते थे।

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