tag:blogger.com,1999:blog-22455485217300845292024-02-08T05:19:23.098-08:00दुर्गेशUnknownnoreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-46760778579890782082010-05-25T18:36:00.000-07:002010-05-25T18:39:38.306-07:00गुदड़ी के लाल थे दुर्गेश<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">-वेदव्यास, जयपुर</span><br /></div><br />सृजन और संघर्ष के मेरे जीवन में जब भी मुझे दुर्गेश की याद आती है अथवा चूरू की याद आती है तो सहसा लगता है कि- कथाकार प्रेमचंद की चेतना का वहां कहीं सही-सलामत है। सन् 1973 से लेकर 2007 तक दुर्गेश, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ में मेरे साथी रहे और चूरू जिले में साहित्य के उद्देश्यों को लेकर उन्होंने अनवरत प्रतिबद्धता से सामाजिक सरोकारों को आगे बढ़ाया। महाजनी सभ्यता के इस जनपद में जन संस्कृति को युवा रचनाकारों के बीच स्थापित करने का जो सृजन और संवाद दुर्गेश ने किया उसकी कोई दूसरी मिसाल अब हमारे साथ नहीं है।<br />25 मार्च, 1952 ई. से 18 नवम्बर, 2007 ई. तक का दुर्गेश का जीवन एक सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता का सफरनामा ही है। राजस्थानी और हिन्दी भाषा-साहित्य में दुर्गेश को एक कथाकार के रूप में जाना जाता है। कोई दो दशक पहले उनकी कथा पुस्तक 'कालपात्र` की भूमिका में कथाकार कमलेश्वर ने ठीक ही लिखा था कि- दुर्गेश एक गुदड़ी का लाल है और प्रेमचंद की परम्परा का सिपाही है। प्रगतिशील साहित्य चेतना की मशाल वह जीवनभर थामे रहे। कुर्ता-पायजमा और चप्पल ही उनकी पहचान बन गई थी और मैंने कभी उनमे कोई वैचारिक विचलन नहीं देखा। छोटी-सी सरकारी नौकरी करते हुए भी वह सांस्कृतिक आयोजनों की आधारशिला बनाते रहते थे और कहा करते थे कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम कहां हो, अपितु महत्वपूर्ण यह है कि तुम क्या कर रहे हो।<br />साहित्यक मित्रों के प्रति दुर्गेश बहुत समर्पित और भावुक थे तथा नवोदित रचनाकारों के लिए संवेदनशील थे। मुझे पता है कि शेखावाटी अंचल में धनपतियों की सेवा-चाकरी की एक पुरानी साहित्य परम्परा है लेकिन दुर्गेश पूरी तरह अक्खड़ और फक्खड़ तथा एकला चलो रे की पवित्रता से सृजन और व्यवहार करते थे। मैं जब-जब राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर और राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का अध्यक्ष रहा तो वह कहा करते थे, ''प्रगतिशील साहित्यकारों को अब इन अकादमियों से कुछ भी पाना कठिन हो जायेगा क्यों कि वेद व्यासजी तो खुद प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री हैं।``<br />मुझे याद है कि जब साहित्य में सामाजिक सरोकारों का दौर था तब मेरे और दुर्गेश के निमंत्रण पर सुप्रसिद्ध लेखक भीष्म साहनी, कमलेश्वर और डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय सरीखे साथी अपनी जेब के किराये-भाड़े से चूरू आये थे और भाषा, साहित्य और संस्कृति की अलख जगायी थी।<br />मैं इस बात का गवाह हूं कि दुर्गेश ने साहित्य और समाज में अपनी पहचान बनाई थी और साहित्य के बाजार में विचार और व्यवहार ही उनकी ताकत थी। कम बोलना और अधिक तोलना उनका स्वभाव था। मेरी रचनाओं को यत्र-तत्र पढ़कर वह मुझे नियमित प्रतिक्रिया का पत्र भी लिखा करते थे और उदारता से गुण-दोष बताते थे। दुर्गेश एक अच्छे अनुवादक भी थे तो कुशल संयोजक भी थे। पर्दे के पीछे रहकर काम करना और युवा रचनाकारों को आगे बढ़ाना उन्हें अच्छा लगता था। उनके व्यंग्य और लघुकथाएं पढ़कर मुझे अक्सर लगता है कि वह जैसा कहते थे वैसा लिखते थे और जैसा लिखते थे वैसा दिखते भी थे।<br />चूरू ही उन्हें इतना प्रिय और प्रगाढ़ था कि कहीं बाहर आना-जाना उन्हें अधिक पसंद नहीं था। चूरू में दुर्गेश का पर्याय दुर्गेश ही थे। मैं किस-किस का उल्लेख करूं- क्योंकि चूरू जनपद की युवा पीढ़ी को साहित्य की प्रगतिशील चेतना से जोड़ने में उनकी ईमानदार भूमिका रही है। राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता के संघर्ष में लम्बे समय तक दुर्गेश हमारे साथी रहे हैं और मैं उनकी विनम्र साधना को आज भी आदर करता हूं। उनका जीवन तपती रेत पर नंगे पांव का सफर जैसा था और उनका सृजन राजस्थानी लोकजीवन की अर्न्तकथा की तरह है। दुर्गेश की रचनाओं में शब्दों की मितव्ययीता से प्रयोग इनकी भाषा-शैली को मूल्यवान बनाते हैं और राजस्थानी भाषा की आंचलिकता उन्हें साहित्य के अर्न्तमन से जोड़ती है। दुर्गेश एक मूल्यवान लेखक के रूप में हमें इसीलिये बार-बार याद आयेंगे कि वह एक खुली आंख का सपना देखते थे और जीवन के यथार्थ और भ्रम को अपने सृजन-सरोकारों से जोड़ते थे।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-5872839634399708232010-05-25T18:31:00.000-07:002010-05-25T18:36:24.772-07:00साधारण दीखबाळो, असाधारण मिनख<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">-भंवरसिंह सामौर, चूरू</span><br /></div><br />राजस्थान विश्वविद्यालय रै हिन्दी विभाग सूं पढ़ाई पूरी कर राजस्थान सरकार रै कॉलेज शिक्षा विभाग मांय म्हारो चयन हुयो। उण बखत भावजोग सूं कॉलेज शिक्षा रै निदेशक पद माथै श्रद्धेय आर.एस. कपूर हा, बै महाराजा कॉलेज मांय म्हारा इतिहास गुरु हा। राजस्थान लोक सेवा आयोग सूं म्हारो नांव आयो तो म्हनैं बुलायो अर बूझयो कै कठै लागणो चावै है। लोहिया कॉलेज-चूरू, बांगड़ कॉलेज-डीडवाना अर दूगड़ कॉलेज-सरदारशहर मांय जिगां खाली है। म्हैं कैयो गांव सूं तो नैड़ो डीडवाणो है। और`स आप जाणों। जणां बां कैयो, डीडवाणो दूसरै जिलै मांय है अर सरदारशहर काणीयै पड़ै। चूरू अळगो जरूर है पण जिलै रो मुख्यालय हुवण सूं थारै गांव बोबासर रै विकास मांय भोत काम आसी। इण भांत बां म्हनैं लोहिया कॉलेज, चूरू मांय लगा दियो।<br />चूरू मांय डॉ. श्रुतिधर गुप्त, प्राचार्य रै रूप मांय आया। बै भोत उत्साही हा अर नुंवै लोगां नै आगै लेय कॉलेज रै विकास री योजनावां बणायी। इण पेटै अधिस्नातक (एम.ए., एम.एससी. एम. कॉम) कक्षावां री सरूवात तो खास मानो हो ही साथै ही हिन्दी मांय ऑनर्स री कक्षावां ई बां सरू करवायी। ऑनर्स मांय राजस्थानी रो एक प्रश्न-पत्र बां रखवायो अर बो पढ़ावण वास्तै म्हारै सूं पक्कायत करली कै थानै पढ़ाणो पड़ैलो दूसरै आदमी री व्यवस्था कोनी हो सकैली। इण रै साथै बां एक काम और करयो कै लोहिया कॉलेज री सालीणा पत्रिका 'आलोक` मांय राजस्थानी रो न्यारो अनुभाग सरू करवायो। जको आज दिन लग चालू है। ऑनर्स रै पढ़ेसरयां मांय पैलो बैच डॉ. महेशचंद्र शर्मा (पूर्व राज्यसभा सदस्य अर पूर्व प्रदेशाध्यक्ष, भाजपा) अर ओमप्रकाश शर्मा (पूर्व न्यायाधीश) इत्याद 10 पढ़ेसरयां रो हो।<br />ऑनर्स रै आगलै बैच मांय दुर्गादत्त माळी प्रवेश लियो। ऑनर्स मांय ऊंचै नंबरां सूं प्रवेश मिलतो। दुर्गादत्त नै संगळिया पढ़ेसरी दुर्गेश नांव सूं बतळाता अर बोही उण रो नांव थरपीजग्यो। दुर्गेश आखी ऊमर इणी नांव सूं ओळखीजतो। उणरै साथै दो नांव और हा, बालमुकन्द ओझा अर गिरधारीलाल यादव। ओझो तो राजस्थान विधानसभा मांय नकली तमंचो चलाय`र चेतावनी दीन्ही कै आज तो नकली है पण तड़कै असली चालैलो। ओझो अबार राजस्थान सरकार रै जनसंपर्क विभाग मांय अधिकारी है अर गिरधारीलाल यादव, उपनिदेशक, माध्यमिक शिक्षा मांय सरकारी नौकरी करै। अै तीनू ई पढ़ेसरी कॉलेज मांय चर्चित हा। आंनै अै जुझारू संस्कार दिया माधव शर्मा पत्रकार, जिका सोशलिस्ट पार्टी सूं जुड़ेड़ा हा। म्हैं मजाक मांय बांनै सोटलठ पार्टी वाळा कैय`र बतळांतो।<br />दुर्गेश मूलरूप सूं साहित्य सूं जुड़ाव वाळो मिनख हो। पढ़तां थकां ई अै लक्षण उण मांय प्रगट हुग्या। उणनै 'आलोक` पत्रिका रै राजस्थानी अनुभाग रो छात्र-संपादक ई बणायो अर उण चोखो काम करयो। उणरी पैली रचना 'म्हैं पापी हूं` नांव री कहाणी 'आलोक` मांय ही छपी। फेरूस उणरी रचनावां हिन्दी अर राजस्थानी मांय उण जमानै री पत्रिकावां मांय छपी। फेरूं नारायणसिंह राजावत 'दिलचस्प` उणनै साथै लेय 'युवा रचनाकार समुदाय` बणाय कैयी आयोजन करया अर वांरी चर्चा आखै साहित्य जगत मांय हुयी। पैलो आयोजन आर.एन. अरविंद (तत्कालीन उपखण्ड अधिकारी, चूरू) री प्रेरणा सूं सुराणा स्मृति भवन, चूरू मांय राजस्थान रै युवा रचनाकारां रो हुयो। इण सूं एक नुंवै साहित्यकारां री टीम बणी। इणरै पछै दुर्गेश रो संपर्क वेदव्यास, कमलेश्वर अर भीष्म साहनी सूं हुयो अर अै देश रा नामी साहित्यकार चूरू मांय आय आं जोध-जुवानां रो होसलो बधायो।<br />इंयां चालतां-चालतां आ` जोड़ी चूरू मांय राजस्थानी समारोह रो आयोजन करयो, जिण मांय उण जमानै रा उच्च शिक्षा मंत्री बी.डी. कल्ला अर वेद व्यास तो पधारया ही उण रै साथै दिल्ली री 'वर्ल्ड फैमिली` नांव री संस्था रा देश-विदेश रा अनेक संस्कृति कर्मी, जामिया-मिलिया, दिल्ली रै विष्णुजी रै नेतृत्व मांय दिलचस्प रै प्रयास सूं पधारया। उण मोकै राजस्थान रै लोक संगीत रा नामी-गिरामी लंगा-मांगणियार लोक गायक आया तो गोगाजी री गाथा गावणियां डैरूं रा लोक गायक भी हा। उण मौकै एक स्मारिका भी छपी।<br />इण भांत पुराणां साथी छूटता गया अर नुंवां जुड़ता गया। नुंवा साथ्यां मांय गुरुदास भारती, कमल शर्मा, हनुमान आदित्य अर दुलाराम सहारण इत्याद जुड़या अर कारवों चालतो रैयो। रचनात्मक काम चालता रैया। दुर्गेश नै राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं 'काळो पाणी` रचना माथै पुरस्कार ई मिल्यो। प्रगतिशील लेखक संघ सूं ई आखी ऊमर जुड़यो रैयो। आगै री योजनावां रा कैयी काम उण ओढ़ राख्या हा पण एक दिन दुलाराम सहारण रो फोन आयो, दुर्गेश कोनी रैयो। सुण`र विस्वास कोनी हुयो पण कांई हुवै? मरणो तो कोयी रै बस री बात कोनी हुवै। मरणो तो पड़सी मुदै, जलम्या जका जरूर। बिलख`र रैयग्या।<br />दुर्गेश री स्मृति मांय हुयी शोक सभा मांय उण रै जलम दिन 25 मार्च माथै कार्यक्रम री बात आयी। दुलाराम सहारण भाली सम्हाई। उणरा जोड़ीदार बण्या डॉ. रामकुमार घोटड़ अर आसीरवाद हो बैजनाथजी पंवार रो। सुधी लोगां री भावना रै मुजब ओ आयोजन आच्छो हुयो।<br />कुड़तै, पजामैं वाळो एक पतळो`क साधारण दीखबाळो मिनख साहित्य जगत मांय असाधारण काम कर आपरी छाप छोडग्यो।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-71182802077266955732010-05-25T18:28:00.000-07:002010-05-25T18:31:34.344-07:00खरा मिनख हा दुर्गेशजी<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- डॉ. मदन सैनी, बीकानेर</span><br /></div><br />दुर्गेशजी सूं म्हारो मेळ-मिलाप घणो जूनो है। म्हैं जद दसवीं मांय भणाई करतो, उण टेम 'बातघर` मांय म्हारी कहाण्यां-कवितावां छपती। दुर्गेशजी री ई छपती। बै 'युगपक्ष` अर 'वर्तमान` मांय ई छपता, म्हैं भी छप्यो। उण टेम बै दुर्गादत्त दुर्गेश रै नांव सूं लिख्या करता। म्हनैं याद है कै म्हारी कहाणी माथै पैलो पाठक-पत्र दुर्गेशजी रो इज आयो। बै लिख्यो कै इचरच री बात है, आप कॉमर्स रा विद्यार्थी हो, फेर ई आपरी भाषा निर्दोष है, आपसूं म्हानैं घणी उम्मीदां है। आप आपरै लेखण मांय खरोपण राख्या अर ज्यादा सूं ज्यादा भोगेड़ो जथारथ इज प्रगट करता रैया।<br />बाद मांय तो दुर्गेशजी म्हारी कैयी रचनावां री बडाई करी। म्हैं बांनै भोत कम कागद लिख्या, पण बांरै लेखन मांय आळस कोनी हो। बरस छियत्तर-सतत्तर मांय म्हैं सेठ बुद्धमल दूगड़ राजकीय महाविद्यालय, सरदारशहर मांय बी.कॉम. रै पैलै बरस री भणाई कर रैयो हो। 'बाल भारती` मांय दुर्गेशजी री 'बटुआ` कहाणी छपी ही। संजोग सूं म्हैं म्हारै नानेरै चूरू गयो अर ममेरै भाई सूं दुर्गेशजी रो जिकर करयो। मेमरो भाई नारायण दहिया कैयो कै दुरगो भायो तो नेड़ो इज रैवै, चालो मिला दयूं। म्हैं उमायो-उमायो नारायण साथै रामजस रै कुवै कनै एक बगीची रै कमरै सामीं खड़यो हुयग्यो। नारायण हेलो करघे, ''दुरगा भाईजी!`` हेलै रै समचै ई हाथ री आंगळयां मांय थाम्योड़ी बीड़ी फेंकता दुर्गेशजी कमरै सूं निकळया। म्हारै कानी आपरी निजरां सूं देख्यो। म्हैं बोल्यो, ''मदन सैनी।`` म्हारो नांव सुणतां-ई दुर्गेशजी आगै बधता थकां म्हनैं गळै लगा लियो।<br />बां रो कमरो किरायै रो हो। उण मांय टेबल, कुर्सी अर लैंप सजायोड़ा हा। कमरै मांय पत्रिकावां भी करीनै सूं सजायोड़ी ही। बै अखबार अर पत्रिकावां मांय छपी आपरी रचनावां दिखांवता रैया अर साहित्य री विधावां माथै चरचा करता रैया। कमरै मांय बीड़यां रो धूंवो म्हनैं ठीक नीं लाग्यो। पछै म्हैं बीड़ी रै नशै नै लेयनै 'बीड़यां` नांव री कहाणी लिखी, जकी 'फुरसत` पोथी मांय बांचता थकां दुर्गेशजी कैयो कै इणरी प्रेरणा म्हारै सूं ई मिली होसी।<br />फेर तो म्हे बराबर मिलता रैया। म्हैं 'राजस्थानी काव्य मांय रामकथा` माथै पी-एच.डी. करी अर म्हारो जद राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ कानी सूं सम्मान करीज्यो, तद चूरू सूं दुर्गेशजी अर बनावारी खामोश ई बधाई देवण नै आया हा। बीकानेर विश्वविद्यालय बण्यां पछै इणरा पैला कुलपति म्हारै शोध-प्रबंध रो विमोचन करयो अर बांरै मूंढ़ै सूं 'कूपमंडूक` सबद सुणनै राजस्थानी साहित्याकारां हल्लो मचा दियो अर अखबारां मांय ऊलजलूल टिप्पण्यां आपरै नांव सूं छपावण लाग्या तो दुर्गेशजी म्हनैं फोन करनै बूझयो के आप उण कार्यक्रम मांय हा, बताओ कांई हुयो? म्हैं कैयो, कीं ई नीं हुयो, सगळी फालतू बातां है, फेर दुर्गेशजी री टीप नीं छपी। अैड़ा खरा मिनख हा दुर्गेशजी। बै पैली घटना री तैकीकात करता अर फेर इज अखबार मांय लिखता। एक पख री बात नै इज वै तूल नीं देंवता। आज अैड़ां लोगां रो घणो तोड़ो है।<br />म्हैं उणानै राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी सूं लघुकथा माथै पुरस्कार मिल्यो तद बधाई दीनी। वां बडो संको दिखायो अर कीं नीं बोल्या। अैड़ो हो मांयलो दुर्गेशजी रै।<br />दुर्गेशजी इत्ती इज उमर लेयनै आया हा। बै रैंवता तो बांरी घणी रचनावां सामीं आंवती। पण म्हनैं घणो गुमेज हुवै जद चूरू रा घणखरा युवा साहित्यकार बांनै 'सरजी!` कैवै। आ कोयी कम गुमेज री बात नीं है। युवा साहित्यकारां रै 'सरजी` नै म्हारी घणी सिरधाजंलि।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-61076555669010455442010-05-25T18:22:00.000-07:002010-05-25T18:27:59.510-07:00चार लाइन<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- कुमार अजय, घांघू (चूरू)</span><br /></div><br />तेजी से चहलकदमी करते हुए चूरू कलेक्ट्रेट परिसर में घुसता हूं और फिर उसी तीव्रता से सीढ़ियां चढ़ते हुए इमारत की ऊपरी मंजिल पर उतर-पश्चिमी कोने में बने कमरे के बाहर पहुंचता हूं, जहां दुर्गेश बैठा करते हैं। बाहर से ही कमरे में झांकता हूं। आज अपनी कुर्सी पर नहीं हैं-दुर्गेश। लेट हो गये होंगे शायद! अभी पहुंच जायेंगे। रास्ते में होंगे। कमरे में और लोग हैं पर उनसे पूछने की हिम्मत आज नहीं। सो मन ही मन खुद को तसल्ली देकर कुछ मिनट और इंतजार करता हूं। अचानक कुछ और सोचकर चल देता हूं। मैं फालतू ही यहां उडीक रहा हूं। आज दफ्तर आते ही पहुंच गये होंगे- हनुमान आदित्य के पास। कोई नया विचार आया होगा मन में। सो मैं उन्हीं के कमरे की तरफ जा रहा हूं अब। संभव है गैलरी ही टकरा जाएं दुर्गेश। और विचारमग्न चलते हुए ही कहें कि आ जाओ मेरे पीछे-पीछे। पर जाने क्यूं आज गैलरी भी सूनी है। आदित्यजी के साथ बातें गहरा गई होंगी। शायद वहीं बातों में मशगूल मिलेंगे। इसीलिए उस कमरे के बाहर ठिठककर भीतर झांकता हूं। अन्यमनस्क से बैठे हैं आदित्य। उनसे भी पूछने की हिम्मत नहीं। सो अनमने से कदम लौट आते हैं। कलेक्ट्रेट की बालकनी में आकर ठहर जाता हूं। सड़क पर फैले परिसर में भीड़ है। लोग हमेशा की ही तरह भागमभाग में जुटे हैं। जर-जोरू-जमीन के तमाम झंझट यहां पहुंचे हुए हैं। उसी की भागमभाग है। यह वही इमारत है जिसके उस कोने में फक्कड़ संत बैठा करता था। इसी दुनियावी मायाजाल में जकड़ा फिर भी मुक्त। अपनी ही तपस्या-साधना में लीन। वह कोई हंगामेबाज नहीं था, फिर भी उसके न होने पर आज यहां सन्नाटा है। एक खामोशी इस बड़ी इमारत के जर्रे-जर्रे पर चस्पा है। इसी सांय-सांय करते सन्नाटे के बीच बालकनी में खड़ा मैं आसमान की ओर जाती पगडांडी को आंख मूंदकर ताकता हूं। हृदय में जैसे कोई आंधी जली चिता के ढेर की राख को अस्त-व्यस्त कर रही है। उड़ा रही है। आंख से निकला एक आंसू ढुलककर नीचे तक आ पहुंचा है।<br />दुर्गेश चले गये हैं। एक बड़े समूह के हर एक को अकेला छोड़कर। उनके चले जाने को मन भली-भांति जानता है। पर जानना चाहता नहीं। मानना चाहता नहीं। मन कहता है, इसी गैलरी में अभी आएंगे दुर्गेश। और मुझे यहां बेवकूफों की तरह खड़ा देखकर पीछे से कंधे पर हाथ रखेंगे, कहेंगे कि आज यहां इस तरह क्यों खड़े हो! आओ चाय पीएंगे...। और फिर अपनी मौत की सच्ची खबर उडाने की अपनी शरारत के खुलासे के बाद मुस्कराएंगे। बावजूद ठगे जाने के हम भी इस नई अफवाह पर उछल पड़ेंगे। पर ये शरारत दुर्गेश की प्रकृति नहीं। उनकी सरलता, निर्मलता और गंभीरता में इस खिलंदड़पन की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं। तो फिर........ ?<br />छले तो गये हैं हम। वह भी निश्लता और निर्माल्य से भरपूर उस संत के द्वारा जिसने शायद ही अपने समूचे जीवन में किसी से छल-व्यवहार किया हो। वे इस तरह रातों-रात अपनी पोटली समेटकर चले जाएंगे, सोचना संभव न था। न अब स्वीकारना संभव है। पर उनकी गैर-मौजूदगी में सारी स्निग्धता गायब है। शब्द सूखे पत्तों की तरह खड़खड़ा रहे हैं, लड़खड़ा रहे हैं।<br />दुर्गेश से मेरी ज्यादतर मुलाकातें इसी इमारत में हुईं। यही वजह है कि जब इस बालकनी से परिसर और परिसर से इस इमारत को देखता हूं तो अनायास ही हृदय में उदासी तैर जाती है। आंखे पनीली हो जाती हैं। बांचता तो उन्हें बचपन से ही रहा था। पर मिलना काफी देर से हो पाया। किसी लेखक के 'खास` और अपने 'आम` होने के बीच के अंतर का अहसास तो एक वजह बना ही इसी देरी का। दूसरा, जब मिलने-मिलाने की उम्र आई तो दूसरे ही झंझावात में फंस गया। गांव भी छूट गया। वापस घांघू आकर जब थोड़ा-बहुत लिखना-छपना शुरू हुआ तो दुर्गेश के पत्र लगातार मिलते। मेरी रचनाओं पर प्रतिक्रिया होती। सो मिलने की इच्छा और भी प्रबल हो गई। फिर भी मुलाकात संयोग से ही हुई। दैनिक भास्कर के दफ्तर में पहले-पहल हुई मुलाकात को सिरे से नहीं पकड़ पा रहा हूं। बाद में उनके दफ्तर में लगातार मुलाकातों का क्रम बन गया। मिलने पर साहित्य चर्चा ही अधिक होती। अपनी योजनाओं और साहित्यिक आयोजनों का जिक्र वे करते। उनकी सक्रियता अभिभूत कर देने वाली थी। साथ ही नवांकुरों के उत्साहवर्द्धन की दिशा में उनके प्रयास भी श्रद्धा पैदा करते हैं। निश्चय ही साहित्यिक आयोजनों तथा औरों को मंच देने में खर्च अपना समय, धन और ऊर्जा यदि वे अपनी ही साहित्य साधना में लगाते तो बहुत कुछ और रच जाते। पर उनके सृजन का संसार विराट था। श्रीसुरेन्द्र सोनी ठीक ही कहते हैं, दुर्गेशजी ने महज शब्द ही नहीं अपित शब्दकार गढ़े।<br />इसी दौरान बी.एड. के लिए बीकानेर और अखबार की नौकरी में सीकर रहते हुए भी मुझे उनके पत्र लगातार मिलते। पत्र का विषय अमूमन मेरी किसी रचना पर प्रतिक्रिया रहता था या फिर किसी साहित्यिक आयोजन का निमंत्रण। पर एक संदेश हमेशा उपस्थित रहा, 'लिखते रहना।` उनके आग्रह के अनुरूप कभी लिख नहीं पाया। पर जो लिखा, उसके पीछे उनकी प्रेरणा हमेशा रही। ज्यादातर हिन्दी में लिखने के बावजूद उनके प्रबल आग्रह और प्रेरणा के चलते ही राजस्थानी कविता संग्रह तैयार कर पाया। मेरे अखबार की नौकरी ज्वाइन करने पर उनकी फिक्र थी कि अब लेखन के लिए कम ही समय मिल सकेगा। साथ ही आगाह भी किया कि साहित्य के लिये समय निकालता रहूं। समाचार लिखते-लिखते जब कोई कविता या लघुकथा मैंने लिखी तो उनकी प्रसन्नता भरी प्रतिक्रिया अवश्य ही मुझे मिलती। बतौर सरकारी सेवा में मेरे चयन से अधिक खुशी उन्हें इस बात की हुई कि अब लेखन के लिये अधिक समय मिल सकेगा।<br />बीते चौदह नवम्बर को कुलिश स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार समारोह के सिलसिले में जयपुर था। दूसरे दिन राजस्थान पत्रिका में मेरा फोटो देखकर उन्होंने मुझे बधाई तो दी ही, साथ ही चूरू आते ही मिलने के लिए कहा। मैं चार-पांच दिन जयपुर रहा। हमेशा की तरह इन दिनों भी उनके एसएमएस लगातार आते रहे। अठारह की सुबह ट्रेन से चूरू आते समय उनका एसएमएस मिला। एसएमएस कुछ यूं था-<br />''अगर आपकी दुनियां आसमान है, तो दोस्त आपके सितारें होंगे। पर उन सितारों में हमें न ढूंढ़ना, क्योंकि आपकी तमन्ना पूरी करने वाले हम टूटते तारें होंगे।``<br />उन्होंने खुद को हमारी ख्वाहिशों के लिये टूटने वाला तारा बताया। फिर भी जो होने वाला था, उसकी कल्पना भी संभव न थी। एकाध दिन में ही उनसे लम्बी मुलाकात की इच्छा थी। पर अठारह की रात इस तारे को तोड़कर ही गुजरी। भावुकता में पीछे लिख गया हूं, दुर्गेश छलकर चले गये। हमें ठगा-सा छोड़ गये। पर यह आरोप भी मुनासिब नहीं। वे जिस सरलता के साथ जिये थे, उसी सरलता से उन्होंने तो कह ही दिया था कि तारा टूट रहा है। हां, सरलता एक हद पर जाकर इतनी जटिल, मुश्किल और असहनीय हो जाती है, यह बड़ी कीमत पर ही सिखा पाये दुर्गेश। मुझे ही नहीं यह एसएमएस उन्होंने अपने कई मित्रों को किया। अंतिम संस्कार से लौटते वक्त श्री रियाजत अली खान ने भी वह एसएमएस भाई दुलाराम सहारण को दिखाया था। मैंने भी यह एसएमएस उन्हें दिखाया।<br />आखिरी छह महीनों में उनके एसएमएस खूब आते थे। मैं उन्हें नहीं भेज पाता, तो वे 'चार लाइन भेजो` लिखने को पुन: कहते। जवाब में मुझे तुरंत लिखना पड़ता। उनका आखिरी एसएमएस आज भी मेरे मोबाइल में सुरक्षित है परंतु एसएमएस के इस 'आखिरीपन` को मन मंजूर नहीं करता। मन कहता है, अभी एसएमएस की टोन पर थिरकेगा मोबाइल। इनबॉक्स पर हूं। उन्हीं का मैसेज है- 'चार लाइन तो भेजो।` निरुत्तर आंखों से फिर एक आंसू निकलकर मोबाइल स्क्रीन पर फैल गया है। शब्द धुंधला रहे हैं.......... ।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-64394847988533422502010-05-25T18:21:00.000-07:002010-05-25T18:22:08.073-07:00वास्तविकता में जीने वाले थे दुर्गेशजी<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="font-weight: bold; text-align: right;">-जयप्रकाश सैनी, चूरू<br /></div><div style="text-align: justify;"><br />दुर्गेशजी नहीं रहे...... जैसे हमारी नींव का बड़ा-सा भाग नहीं रहा! कैसे खड़े रह पाएंगे हम अपनी भव्यता के साथ?<br />पहली रचना दिखाने के बाद उनके कहे हुए शब्द, 'बहुत अच्छी है, लिखते रहो।` कैसे विस्मृत हो सकते हैं। और अत्यधिक रचनात्मक जुड़ाव के कारण बाधित होते अध्ययन के मद्दे नजर उनके शब्द, 'पहले अपना केरियर बनाओ, उसके बाद साहित्य पूर्णता के साथ अपनाओं। फिलहाल रुचि <span>बरकरार</span> रखो बस....।`<br />कैसा तालमेल और निर्देशन था उनमें। वे चाहते थे कि युवा साहित्य से भी जुड़ा रहे और अपने केरियर से भी न टूटे। बस यही विशेषता होती है मार्गदर्शक में।<br />आगे चलकर सत्य का भान होने पर ऐसे गुरु के प्रति ही शिष्य नतमस्तक होते हैं। सामयिक और निज लाभ से दिया ज्ञान कहां सम्मान करवा पाता है? वह तो समय के साथ भूला दिया जाता है। लेकिन शाश्वत प्रकृति के निर्देश और वास्तविकता में जीने के संदेश कितने लोग दे पाते हैं। बस दुर्गेश जैसे बिरले.......।<br />रचनात्मकता अगर मेरे में आज जिंदा है तो उसका पूरा श्रेय दुर्गेशजी को है।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-5737834503771440942010-05-25T18:18:00.000-07:002010-05-25T18:20:58.072-07:00पहली मुलाकात<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- </span><span style="font-weight: bold;">डॉ</span><span style="font-weight: bold;">. रामकुमार घोटड़, राजगढ़ (चूरू)</span><br /></div><br />सन् 1991-92 की बात होगी। मैंने एक पत्रिका में दुर्गेशजी की लघुकथा एवं एक समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ी। मेरा लेखन अधिकतर लघुकथा विधा पर ही रहा है अत: इतने नजदीकी निवासी (चूरू) लघुकथाकार का नाम देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने इस संदर्भ में एक पत्र 'महाराजा होटल, स्टेशन रोड, चूरू` के पते पर लिखा। कुछ दिन बाद उनका एक स्नेहिल पत्र व साथ में 'काळो पाणी` व 'धूल की धरोहर` पुस्तकें मिली। मुझे बहुत अच्छा लगा। काळो पाणी की लघुकथाएं निस्संदेह अच्छी लगी ही लेकिन मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया धूल की धरोहर की कहानियों ने। जिसमें ग्रामीण परिवेश के पात्रों के साथ टीले, फोग, खींप, खेजड़ी, कैर-जाल का सटीक विवरण है। इन कहानियों को पढ़ते समय मुझे यूं लगा कि ये मेरे आसपास व मेरे गांव की ही कहानियां है। मेरा बचपन आंखों के आगे घूमने लगा और ऐसा अहसास हो रहा था जैसे कि इन कहानियों में मैं भी कहीं न कहीं हूं। इन कहानियों ने मुझे दुर्गेशजी से जल्दी मिलने की इच्छा जागृत कर दी। लेकिन संयोगवंश मिल नहीं पाया।<br />सन् 1994 में राजस्थान सरकार द्वारा मेरा चयन उच्च अध्ययन हेतु कर लिये जाने के कारण मैं स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ कोर्स हेतु बीकानेर चला गया। बीकानेर एक साहित्यिक गढ़ है। मेरी सबसे पहले मुलाकात उस समय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत श्री बुलाकी शर्मा से हुई। तब बुलाकीजी ने कहा, 'अच्छा आप चूरू के रहने वाले हो तो आप दुर्गेशजी को तो जानते हीं होंगे। वो एक अच्छे लेखक हैं। तब मुझे अपना आलस्य खला कि समय निकालकर मैं दुर्गेशजी से क्यों नहीं मिला।<br />फिर बीकानेर के साथियों से धीरे-धीरे परिचय होता गया। लगभग चार वर्ष के अध्ययन के दौरान मैं बीकानेर रहा। तब यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, मालचंद तिवाड़ी, नीरज दइया, हरदर्शन सहगल, भवानी शंकर व्यास विनोद के मैं निकट आया एवं इनसे आत्मीय संबंध बन गये। श्री हरीश भादानी, नंदकिशोर आचार्य, शिवराज छंगाणी, लक्ष्मीनारायण रंगा से परिचय भर ही हो पाया। जब इनसे मेरा शुरूआत में परिचय हुआ तब इन्होंने भी मुझसे कहा, 'अच्छा आप चूरू के रहने वाले हो, चूरू, दुर्गेशजी वाला चूरू। आप तो उनसे जरूर मिलते रहे होंगे। ऐसे भले आदमी के सान्निध्य में रहकर साहित्यिक विचार-विमर्श तो होता ही रहा होगा।` मैं मुस्करा भर रह जाता।<br />सन् 1998 में कोर्स पूर्ण होने पर मेरी पोस्टिंग राजगढ़ (चूरू) कर दी गयी। संस्थान का प्रभारी होने के नाते मुझे जिला मुख्यालय पर विभागीय मीटिंग हेतु जाना होता था। हर बार मैं इसी प्रयास में रहता कि मीटिंग के बाद दुर्गेशजी से भी मिलूं। लेकिन कभी समयाभाव व कभी दुर्गेशजी के कार्यालय की सही जानकारी न होने व कभी परेशानी भरा माहौल, संकोचवश मिल न सका।<br />सन् 1999 के एक दिन जब विभागीय मीटिंग से जल्दी ही मुक्त हो गये तो मैंने दुर्गेशजी से मिलने का मन बनाया। हिम्मत करके एक कर्मचारी से दुर्गेशजी के कार्यालय के विषय में पूछा। उस व्यक्ति ने इस ढंग से उनके कार्यालय का रास्ता व बैठने की जगह बताई जैसे गहरी जानकारी रखने वाला नक्शे पर हू-ब-हू इंगित करता है। मैं उसके बताए अनुसार जिलाधीश कार्यालय की दूसरी मंजिल में गया। पतली-सी गैलरी से होकर बायें हाथ की तरफ एक कमरे के दरवाजे पर गया तो देखा कि वहां दो कर्मचारी बैठे हैं। एक, गेट के पास, दूसरा, आगे की ओर। एक छोटा-सा कमरा, आलमारियों व लम्बी-लम्बी टेबल से ठसाठस भरा हुआ। दोनों को देखकर मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मुंह से बुदबुदाया, 'दुर्गेशजी?` तब आगे की ओर बैठा हुआ शख्स खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन स्वीकारते हुए कहा, 'दुर्गेश मैं ही हूं।` मैंने अपना परिचय दिया। तब दुर्गेशजी ने मेरे से हाथ मिलाते हुए कहा, 'अच्छा! डॉ. रामकुमार घोटड़ आप हैं। पहली बार मुलाकात हुई है आज। नाम भर जानता था। अच्छा लगा कि आप आये हो। आओ! बैठो।` फिर इधर-उधर देखकर वे झिझक से गये। उस कमरे में बैठने के लिए कुर्सी रखने की जगह ही नहीं थी। तब उन्होंने अपने साथी को, 'मैं आता हूं।` कहकर मेरा हाथ पकड़ते हुए बाहर आये। फिर हम दोनों गैलरी से सीढ़ियां उतरकर कलेक्टघ्ेट कार्यालय के बाहर लगी चाय की थड़ियों पर आकर बैठ गये।<br />हमने वहां नमकीन एक साथ ली और घण्टे भर बैठे रहे। इधर-उधर की, अपने-आपकी व साहित्य संबंधी बातें की। मैंने भी उन्हें बीकानेर के साथियों व उनके प्रति जुड़ाव व श्रद्धा की बात बताई। मेरे मन में आ रहा था कि इतना बड़ा नाम और इतनी सादगी, सरलता। जहां भी मैं साहित्यिक गोष्ठियों में गया या साहित्यिक साथियों से मिला वे राजगढ़ के नाम को अनसुना करते हुए चूरू का नाम आते ही मुझसे कहते, 'अच्छा चूरू से आये हो, दुर्गेशजी कैसे हैं? चूरू तो दुर्गेशजी वाला ही है ना।` जिस नाम के आगे ऐसी उपमा आती हो वा आप मेरे सामने बैठा है।<br />वे एक बंद गले के कमीज व पायजामा पहने साधारण, सामान्य-सी वेशभूषा में बैठे थे। बात करते समय कम बोलना व सार की बात कहना, हंसी-मजाक की बात में भी होंठो पर सिर्फ मुस्कराहट, प्रत्येक बार बड़े नाम से मुझे संबोधित करके बोलना। उनके आत्मीय व्यवहार व बात करने की शैली ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मिलने के बाद मुझे अफसोस हुआ कि मुझे तो इनसे पहले ही मिल लेना चाहिए था।<br />दुर्गेशजी के हंसने का ढंग भी अलग ही था। होंठो पर मुस्कराहट के साथ आंखों में खुशी का इजहार के संकेतों से ही आभास होता था कि वे हंस रहे है। मैंने कभी भी उनके होंठ खोलकर दांत दिखाने वाली ठहाके भरी हंसी हंसते नहीं देखा। लगभग एक दशक मैं उनके सम्पर्क में रहा हूं।<br />वे सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले एक विचारशील व्यक्ति थे। स्वयं को यथा स्थान रखकर हम उम्र एवं युवा साहित्यकारों को आगे लाने के सकारात्मक सोच के साहित्यकार रहे हैं। वे गुटबाजी को नजर अंदाज करते हुए अपने-पराये सभी का सम्मान करने वाले विशिष्ट जीवनशैली के धनी थे।<br />अब भी चूरू शहर वैसा ही है। वही सड़के, वही थड़ियां, वही कार्यालय व साथी। भीड़ भरे बाजार। पीं-पीं का वैसा ही स्वर। फिर भी न जाने क्यों, जब भी चूरू शहर में जाता हूं तब मुझे एक कमी-सी अखरती है, दिल में एक अजीब-सी टीस उठती है कि मेरा कुछ खो गया है। अकेलेपन का अहसास टीसने लग जाता है........ दूर कहीं दूर तक मेरी नजरें मायूस-सी लौटकर मुझे प्रकृति के सनातन सत्य का अहसास करवा देती हैं।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-74948694544928834722010-05-25T18:01:00.000-07:002010-05-25T18:18:08.016-07:00कीं म्हारी, शब्द-शिल्पी दुर्गेश रै ओळावै<div style="text-align: justify;"><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- दुलाराम सहारण, चूरू </span><br /></div><br /> बांका-चूकां आंक लिखतां-लिखतां ढो` इस्यो पड़यो कै साहित्यकार बजण लागग्या। बजो भलां-ई पण साहित्यकार तो साहित्यकार हुवै! फगत काळा-कागद करणियै नै साहित्यकार....? खैर अंट-संट कैवणो तो दुनियां री आदत हुवै!<br /> आ` कैवणी नीं चायजै पण कैवूं कांई? दुर्गेश माथै लिखणो जरूरी.....। पण लिखूं के? लिख नीं सकूं। लिख नीं सकै तो क्यां रो साहित्यकार? बस, बात कीं माथै-ई तो ढाळणी पड़ै। तो क्यूं नीं दुनियां माथै-ई..... क्यूं कै दुनियां-ई मोह री जड़ हुवै। मोह बणज्या अर पछै बो मोहवाळो बिचाळै सूं चाल बहीर हुवै तो लारै बंचणियो के लिख सकै?<br /> बस..... इत्ती-ई तो कै भगवान उणां री आत्मा नै स्यांती देवै।<br /> पण...... बो मिनख इस्यो कोनी हो कै इत्ती-सी बात सूं लारो छूटज्या। बीं माथै तो एकर सरू हुयां पछै नीं थमीजै इत्तो लिखीजणो चायजै। क्यूं कै बो मिनख दंद-फंद वाळो कोनी हो। बो साचो अर सरल मिनख हो। खुद सूं बेसी आगलै नै मानण वाळो हो। कठै-ई दिखावो कोनी हो। जका जाणै बै मानै कै दुर्गेश बणणो अबखो काम है। सादगी अर सरलता नै अपणावण खातर काळज्यो चायजै।<br /> दुर्गेश रै मिस विगत री ओळयूं ई अंवेरूं बस....। क्यूं कै ओळयूं रै मिस एकर दुर्गेश हुय सकै कै म्हारै साथै आयज्या! तो ल्यो` फेर.......<br /><br /><span style="font-weight: bold;">पृष्ठभूमि :</span><br />म्हारै सूं बडा म्हारा मां-जाया नारायण भाई सा`ब हायर सेकण्डरी करतां-ईं भारतीय वायुसेना रै तकनीकी ट्रेड मांय लागग्या। बखत री मांग ही अर समझ री बात ही। उण बखत बै आपरै छेतर मांय विज्ञान (गणित) सूं टॉपर हा। उण बखत म्हैं छठी-सातवीं मांय पढ़तो। नारायण भाई सा`ब छुट्टी आंवता तद म्हनैं छोटो हुवण रै कारण बहोत लाड मिलतो। म्हारै खातर ल्याइजेड़ी भांत-भांत री चीजां बिचाळै-ई होंवती बालहंस, नंदन, चंपक, बाल भारती जेड़ी चा`वी बाल-पत्रिकावां। बस..... बां नै पढ़तो तो सो-कीं भूल ज्यांवतो।<br />'नदंन` पत्रिका मांय 'पत्र-मित्र` स्तम्भ हुंवतो। उण स्तम्भ सूं ठिकाणा लेय`र कीं कागद न्हाख्या। घणो हरख हुयो कै कीं कागदां रो उथळो-ई आयो अर म्हारी पत्र-मित्रता रो सिलसिलो सरु हुयो। आ` खुसी री बात म्हैं नारायण भाई सा`ब नै उणां रै पोस्टिंग स्थल मद्रास (हाल नांव चेन्नई) कागद लिख`र बतायी। वां फरमायो कै भायलाचारी करणी सो`री हुवै; निभावणी दो`री। इण खातर उण समान-विचार वाळै साथै-ई पत्र-मित्रता करी जकै साथै ओ सिलसिलो चालतो राख सकै। आ` सीख म्हारै काम आयी अर म्हैं आजलग उण बात माथै पूरो रैवण री कोसिस करूं।<br />भाई सा`ब जद छुट्टी आया तद सगळा कागद ओळख्या अर हौंसळो बधायो। कीं जरूरी सीख-ई दी। वां ओ ई कैयो कै पत्रिकावां मांय 'निबंध लिखो`, 'चित्र देखो-कहानी लिखो`, 'वर्ग पहेली भरो` आद प्रतियोगिता मांय भाग-ई लिया कर। वां इण सारू कागदां रा पीसा-ई अळगा दिया। बस... म्हारै पांख आयगी।<br />पाक्षिक 'बालहंस` मांय पाठकीय प्रतिक्रिया रो स्तम्भ हो 'आती-पाती`। म्हारो पैलीपोत नांव उण मांय छप्यो। अंक हो- अगस्त (प्रथम), 1989 ई.। उण पछै बालहंस मांय-ई निबंध प्रतियोगिता जीती। विसै हो, 'मेरा प्रिय जानवर`। म्हैं ऊंट माथै लिख्यो, अंक हो- मार्च (द्वितीय), 1991 ई.। चित्र बनाओ अर रंग भरो प्रतियोगिता जीती। आगै चाल`र राष्ट्रदूत साप्ताहिक मांय रंग भरो प्रतियोगिता मांय कैयीबार इनाम मिल्या। वै 'कैमलिन` रा 'वाटर कलर` नारायण भाई सा`ब ई ल्याय`र दिया हा।<br />म्हनैं आछी ढंग सूं याद है कै म्हारी पैली कहाणी बालहंस मांय-ई 'खुल गई डिबिया` शीर्षक सूं छपी। अंक हो- अप्रेल (प्रथम), 1993 ई.। पैली कविता 'नीड़` शीर्षक सूं बालहंस, जून (प्रथम), 1993 ई. मांय छपी। इंर् रै लगोलग-ई साप्ताहिक 'इतवारी पत्रिका` रै 11 जुलाई, 1993 ई. रै अंक मांय 'जंगल में मंगल` कविता छपी। दैनिक 'अमर उजाला`, बरेली (3 जुलाई, 1993 ई.) मांय कहाणी 'सहायता` छपी तो पग जमीं पर कोनी हा। आं` सगळी रचनावां रो बाकायदा मानेदय आयो। पछै तो चमाचम (मासिक), लखनऊ, बालदर्शन (मासिक), कानपुर, बच्चे (पाक्षिक), मुम्बई, हंसती दुनिया (मासिक), नई दिल्ली आद पत्रिकावां रै हरेक अंक मांय रचनावां आवण लागगी। ओ सिलसिलो चालतो रैयो।<br />पिताजी-ई म्हारी लग्न देख`र पत्र-पत्रिकावां खरीदण सारू बिना मांग्यां-ई बेसी पीसा देंवता। म्हनैं याद है कै वां तो जद म्हैं गांव भाड़ंग सूं आठवीं पास कर`र दो कोस अळगै राजकीय माध्यमिक विद्यालय, धीरवास बड़ा (तारानगर) आयो तद बालहंस बंधवाय-ई दी ही। एजेण्ट श्री ओमप्रकाशजी शर्मा, धीरवास नै अगाऊ पीसा दे दिया हा। हर पंदरवैं दिन बालहंस म्हारै हाथां मांय हुंवती। उण बखत बालहंस रै एक अंक रा 2 रिपिया लागता।<br />10वीं पास करयां पछै म्हैं राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, तारानगर (चूरू) भरती हुयो। बठै साहित्यकार बंधु श्री राजेन्द्र कुमार वर्मा उदास (सेवारत-एसबीबीजे) मिल्या। पछै देवकरण जोशी दीपक मिल्यो। घनश्यामनाथ कच्छावा, सुजानगढ़ सूं कागद-ब्यौवार हुयो अर कारवों बणतो गयो।<br />कॉलेज शिक्षा सारू चूरू रै राजकीय लोहिया कॉलेज मांय आयो। राजकीय सार्वजनिक जिला पुस्तकालय, चूरू सूं राजस्थानी भासा री पोथ्यां लेय`र पढ़ी अर असवाड़ै-पसवाड़ै रा लिखारां रा नांव देख`र अणूतो हरख हुयो। श्री किशोर कल्पनाकांत (रतनगढ़), श्री बैजनाथ पंवार (रतननगर), श्री सीताराम महर्षि (रतनगढ़), श्री श्याम महर्षि (श्रीडूंगरगढ़) आद रा नांव चेतै हुया। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर री मासिक पत्रिका 'जागती जोत` सूं रू-ब-रू हुयो। रचनावां राजस्थानी भासा मांय लिखण री आफळ करी।<br />रचनावां रै मारफत श्री मदन सैनी (बीकानेर) अर श्री भंवरलाल भ्रमर (बीकानेर) सूं कागद-ब्यौवार हुयो। म्हनैं आछी भांत याद है कै म्हारी पैली राजस्थानी कहाणी 'समै बदळग्यो` जागती जोत रै दिसम्बर, 1995 ई. रै अंक मांय छपी तो सैंग सूं पैलां बधाई श्री मदनजी सैनी री आयी। अकादमी रै कॉलेज स्तरीय पुरस्कार मांय भाग लेवण री हिदायत श्री भ्रमरजी ई दी ही, जको आगै चाल`र बरस 1996-97 मांय म्हनैं मिल्यो। <br />श्री मदनजी सैनी एक कागद मांय लिख्यो कै आप चूरू रा साहित्यकार श्री दुर्गेश अर म्हारै छोटै भाई साहित्यकार श्रीभगवान सैनी सूं मिलो। श्रीभगवान जी.पी.एफ. मांय अर दुर्गेश कलेक्ट्रेट मांय नौकरी करै। वां सूं आपनै कीं सीखण नै मिलसी।<br /><br /><span style="font-weight: bold;">दुर्गेश सूं मुलाकात :</span><br />म्हैं दुर्गेश अर श्रीभगवान सूं मिलण उणां रै ऑफिस गयो। कलेक्ट्रेट मांय कुणसी शाखा मांय दुर्गेश है, ओ` ठा नीं हुवण रै कारण म्हैं पैली श्रीभगवान सूं मिलण री तेवड़ी। जी.पी.एफ. ऑफिस मांय टाइप साथै माथा-फोड़ी करता श्रीभगवानजी सैनी मिलग्या। म्हैं नांव बतायो, लिखण री रुचि बताई अर मदनजी सैनी रो हवालो दियो। वां घणै मान सूं बैठायो। दो-एक कागद सलटाया अर पछै म्हनैं कलेक्ट्री रै लारलै पसवाड़ै टिब्बै माथै लगायोड़ै ढाबै लेग्या। चाय रो ऑर्डर दियो। बठै ढाबै रा धणी श्री ताराचंद माळी सूं बंतळ हुयी। थोड़ी देर पछै लंच रो बखत हुयग्यो। श्री कमल शर्मा ई बठै आयग्या। वां बतायो कै वै दुर्गेशजी कानीखर हुय`र आया है; वै एक-दो कागद सलटाय`र अठै-ई आवण रो कैयो है। म्हारै हरख री सींव नीं ही।<br />कीं बखत पछै दुर्गेशजी ई आग्या। चोळो-पजामो, फीतां री सैण्डिल, जेब मांय छोटो-सो कांगसियो, तीन-च्यार भांत-भांत रा पैन अर बीड़यां रो बंडल-लाइटर। दाढ़ी-मूंछ साफ। कद औसत पण सियो। डील मांय टिकाव कोनी। कदे-ई उठ`र पाणी रो गिलासियो लेय`र एक घूंट भरणी अर फैंक देवणी। कदे-ई कांगसियो काढ़`र बाळ संवारणा तो कदे-ई लगोलग हाथ मांयली बुझती बीड़ी नै (लाइटर नीं काढ़यो) तारांचदजी सूं माचिस मांग`र सिलगाणी अर थोड़ी-सी देर मांय ओजूं दोहरावणी करणी। उण दिन फगत बात परिचै री ई हुयी। श्रीभगवानजी सैनी फरमायो कै आप लंच रै बखत आ जाया करो, म्हे सगळा अठै-ई मिलस्यां।<br />उण दिन पछै म्हैं लगोलग ताराचंद माळी रै ढाबै माथै जावण लागग्यो। म्हनैं याद है कै बठै-ई 14 फरवरी, 1996 ई. नै दो मिनखां सूं पैली-पोत भेंटां हुयी। बै हा- श्री गुरुदास भारती (चूरू) अर श्री ओम मिश्रा (श्रीडूंगरगढ़)। ओम मिश्रा चावा-ठावा फोटोग्राफर-लिखारा अर गुरुदास भारती ई लिखारा। श्री गुरुदास भारती उण दिनां केन्द्रीय विद्यालय, चूरू री मास्टरी सूं मुगत करीज्या हा अर निजू आफळ मांय हा। आगै चाल`र जद दैनिक भास्कर, सीकर संस्करण सरू हुयो तद वै चूरू रा ब्यूरो प्रमुख बणाइज्या। (22 दिसम्बर, 1996 ई. नै म्हैं, दुर्गेश अर गुरुदास भारती दैनिक भास्कर रै सीकर संस्करण लोकार्पण समारोह मांय गया हा)। ओम मिश्रा अर भारती सूं हुयी वां मुलाकात आजलग जारी है।<br />म्हनैं याद है कै उण मुलाकात रै कीं दिनां पछै डॉ. अमरसिंह राठौड़ (सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग, जयपुर रा अधिकारी) एक साहित्यिक कार्यक्रम मांय बिसाऊ (झुंझूनूं) पधारया। तारीख ही- 24 मार्च, 1996 ई.। दुर्गेश, श्रीभगवान, गुरुदास, कमल रै साथै म्हैं-ई बिसाऊ गयो। बठै पैलीपोत डॉ. उदयवीर शर्मा, अमोलकचंद जांगिड़, डॉ. किरण नाहटा सूं भेंटां हुयी। सांतरो जळसो हुयो। बहोत-कीं सीखण नै मिल्यो।<br />31 मार्च, 1996 ई. नै श्रीडूंगरगढ़ मांय श्याम महर्षि युवा कहाणीकारां माथै कोयी कार्यक्रम करायो। श्री मदन सैनी म्हारो नांव प्रस्तावित कर दियो हो स्यात्! म्हनैं ई बुलाइज्यो। म्हे सगळा श्रीडूंगरगढ़ पूग्या। म्हारै साथै कहाणीकार रै रूप मांय गुरुदास भारती ई हा। कहाण्यां रो वाचन अर पछै विद्वानां री समीक्षा। पैली दफै बडेरां कानी सूं म्हारी कहाणी री कूंत हुयी। घणो सीख्यो अर बो आजलग काम आवै। उण दिन पैली पोत श्री मदन सैनी, श्याम महर्षि, मालचंद तिवाड़ी, शंकरसिंह राजपुरोहित, नीरज दइया, रवि पुरोहित, रतन राहगीर, महावीर पंवार आद घणां-ई साहित्यकारां रा दरसण करघ।<br />बीकानेर मांय राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर अर मिंमझर संस्थान, बीकानेर री भेळप सूं 6-6 सितम्बर, 1998 ई. नै 'राजस्थानी युवा रचनाकार समारोह` हुयो। उण मांय म्हैं, सामौरजी, दुर्गेशजी अर श्रीभगवान सैनी गया। बठै पैलीपोत श्री भरत ओळा, सत्यनारायण सोनी, शांति भारद्वाज राकेश, चंद्रप्रकाश देवळ, दीनदयाल शर्मा आद सूं भेंटां हुयी। घणा-ई नुंवां लिखारां सूं मुलाकात हुयी अर अब्दुल वहीद कमल रै सांतरै संयोजन सूं कीं सीख्यो।<br />ओ सिलसिलो बधतो गयो। लिखतो गयो अर छपतो गयो। पण एक अफसोस हुयो कै दुर्गेशजी दर-ई कोनी लिखै। न पढ़ै। बस लिखो..... बस लिखो कैवै। लिख्योड़ो लेग्यो तो बेमन सूं पढ़यो अर 'ठीक है` रै सिवाय कीं कोनी....। हां श्रीभगवान सैनी जरूर आपरी हाथपाई लगांवता। बै काम-ई आंवती। दुर्गेश चुप..... कारण.......? कारण निजू समस्यां सूं ग्रसित हुयां पछै री धारेड़ी चुप्पी, साथ्यां बतायी। कीं हुवो भलां-ई मुलाकात तो हुंवती.... आ के कमती बात ही?<br />इनै श्री बैजनाथजी पंवार सूं ई भेंटां हुयगी ही। श्री भंवरसिंहजी सामौर तो कॉलेज मांय हा ई। 1फरवरी, 1996 ई. नै नगरश्री, चूरू मांय श्री करणीदान बारहठ, फेफाना (हनुमानगढ़) पधारया। बां सूं म्हारो कागद-ब्यौवार हो। बां पैली-ई सूचना दे दीनी ही अर म्हनैं मिलण सारू निरदेस-ई। उण दिन पैली पोत श्री बारहठ अर श्री सुबोधकुमारजी अग्रवाळ सूं भेंटां हुयी। गोविंदजी अग्रवाळ तो उण दिन नीं मिल्या। हां, याद है कै बां सूं पछै एक दिन भेंट हुयी अर कागद बतावै कै बो दिन हो, 2 फरवरी, 1996 ई. रो। आं विद्वानां रा निरदेस बखत-बखत मिलता रैंवता, जिकां रो जिकर कदै ओजूं। इबै तो फगत दुर्गेश अर म्हारो....।<br />चूरू आवण सूं पैलां म्हारी घणी बाल-रचनावां न्यारी-न्यारी पत्र-पत्रिकावां मांय छपगी ही। म्हैं बा` फाइल लेय`र दुर्गेशजी कनै आयो। बां देखी अर पैली दफै पीठ थपथपायी। बोल्या, 'इणां सूं तो 2-3 बाल पोथ्यां बण सकै। छपावो।` पछै हाथूं-हाथ बोल्या, 'के फायदो? रैवणदयो।`<br />बस आ ऊहापोह री थिति म्हैं छेकड़ ताणी उणां मांय देखी। कारण के हो? ठा नीं।<br />बिचाळै कीं निष्क्रियता आयगी ही। म्हैं छात्रसंघ रै चुनावां मांय फंसग्यो हो। दुर्गेश अर साथ्यां सूं भेंटां कमती हुवणी-ई ही। पण जद कॉलेज मांय हुवण वाळा सगळा चुनाव (कक्षा प्रतिनिधि, महासचिव अर अध्यक्ष) जीत लिया तो हूंस मिटगी अर साहित्य ओजूं चोखो लागण लाग्यो। दुर्गेशजी रै लारै पड़`र एक हिन्दी व्यंग्य पोथी 'गले वोटो की जेवड़ी` त्यार करवायी। उण बखत राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर रा अध्यक्ष श्री वेदव्यासजी हा। पण पोथी छपण रो जोग कोनी बैठयो। वेदव्यासजी सूं म्हैं खुद फोन माथै बात करी, वां फेरूं रो भरोसो दिरायो। पण हाल...... ? हाल निष्क्रियता टूटणी जरूरी ही।<br />ओजूं दुर्गेशजी रै लारै पड़`र बां व्यंग्यां रो राजस्थानी अनुवाद करवायो अर राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर मांय श्री पृथ्वीराजजी रतनू कनै भिजवायी। पांडुलिपि प्रकासण सैयोग मंजूर हुयो अर पोथी 'ऊजळा दागी` छपी। दुर्गेशजी री साथै छपावण री अड़ी अर चूरू रा विद्वान श्री कमलसिंहजी कोठारी री दियोड़ी हूंस रै पांण म्हारी कहाणी पोथी 'पीड़` छपी। आ` 2004-05 ई. री बात है।<br />हरेक बैठक मांय बंतळ हुंवती कै दुर्गेशजी जबरा आयोजन करवाया। मन माठो हुंवतो कै आपां पैली चूरू क्यूं कोनी आया! इब दुर्गेशजी लूंठा आयोजन क्यूं कोनी करावै? छोटी-छोटी गोष्ठियां...... बस।<br />दुर्गेशजी सूं कुचरणी करता। पण बात बणी कोनी। भाई गुरुदास भारती, कमल शर्मा, श्रीभगवान सैनी सूं बंतळ करी अर आयोजन रो जोड़ बिठाण री आफळ....! श्री भंवरसिंहजी सामौर राजस्थानी, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर री कार्यसमिति मांय हा, बात करी। सामौर सा`ब रो बड़प्पन कै बां झट देणी हां भरली। अकादमी अध्यक्ष डॉ. देव कोठारी चूरू नै जिला साहित्यकार सम्मेलन दियो। दस हजार रो बजट अर एक दिन रो कार्यक्रम, जिण मांय जिलै रा साहित्यकार भेळा हुवणां अर साहित्यिक चर्चा हुवणी।<br />जी कोनी मान्यो। संभागीय हुंवतो तो सियोता बणती। कांई करीजै? सगळां साथ्यां हिम्मत तेवड़ी अर जन-सैयोग सूं कार्यक्रम दो दिवसीय अर संभाग स्तरीय बणावण री तै करीजी। मरुधरा लोक कला संस्थान, चूरू अर अकादमी री भेळप मांय दुर्गेश रै संयोजकत्व मांय 10-11 दिसम्बर, 2005 ई. नै चूरू मांय 'राजस्थानी साहित्यकार समारोह` तेवड़ीज्यो। आसेरी गेस्ट हाउस, चूरू मांय हुयो ओ` कार्योम लूंठो हुयो अर आखै राजस्थान, खासकर बीकानेर संभाग सूं घणां साहित्यकार पधारघ। श्रीनंद भारद्वाज (जयपुर), हनुमान दीक्षित, भरत ओळा, शिवराज भारतीय (नोहर), मालचंद तिवाड़ी, ओम मिश्रा, राजेन्द्र स्वर्णकार (बीकानेर), बैजनाथ पंवार, भंवरसिंह सामौर, हरिराम मीणा (चूरू) श्याम महर्षि (श्रीडूंगरगढ़), डॉ. नरपतसिंह सोढ़ा (झुंझुनू), पूर्ण शर्मा पूरण (रामगढ़-हनुमानगढ़), मनोहरसिंह राठौड, नागराज शर्मा, शीतांशु भारद्वाज (पिलानी), ओम पुरोहित कागद, दीनदयाल शर्मा (हनुमानगढ़), सीताराम महर्षि (रतनगढ़), शारदा कृष्ण (सीकर), डॉ. मंगत बादळ (रायसिंहनगर-श्रीगंगानगर), डॉ. चेतन स्वामी (फतेहपुर-शेखावाटी), मनोज स्वामी (सूरतगढ़), बजरंगलाल जेठू (लाडनूं-नागौर), डॉ. रामकुमार घोटड़ (सादुलपुर) समेत घणां ई नांव समारोह री भेळप मांय गिणावण जोग है। स्मारिका 'मरुधरा` ई छपी। इण समारोह रै मिस-ई दुर्गेशजी रा हेताळू हनुमान आदित्य सूं भेंट हुयी, वां रो सैयोग समारोह मांय सरावण जोग रैयो।<br /> ओ` समारोह सक्रियता रो पांवडो बण्यो। इण पछै हरेक 10-15वें दिन कोयी-न-कोयी कार्यक्रम हुंवतो रैंवतो। नुंवै प्रकासण कानी ध्यान गयो तद प्रकासणां री लगांटेर लागगी। कार्यक्रम रो कार्ड लेय`र जांवता जद सामलो पैली ई बूझतो, 'क्यां रो विमोचन है?`।<br />श्रीदुर्गेशजी साथै बंतळ मांय एक दिन 'राजस्थानी जातरा संस्मरण रो अभाव` चर्चा रो विसै हो। वां झट-सी ओ` काम 'बाळू रेत सूं गोमुख तांई` पांण सरू करयो। आ` कड़ी दैनिक युगपक्ष मांय लगोलग छपी। दुर्गेशजी किणी घटना माथै बेगा आंदोलित हुंवता अर उणरी प्रतिक्रिया कागदां माथै उतरती। वै कैवण सूं बेसी लिख`र अभिव्यक्ति देंवता। दिन मांय बात हुंवती उण री प्रतिक्रिया वै म्हारै घर रै ठिकाणै माथै डाक सूं कागद भेज`र देंवता। घणां कागद आज फाइलबद्ध है। सामयिक घटनावां माथै तो वै झट लिखता अर दैनिक नवज्योति रो 'जल-तरंग` स्तम्भ उणां नै छापतो। अै व्यंग्य हुंवता, जका पांडुलिपि 'मुझ से बड़ा न कोय` मांय संग्रहित है। वां घणी-ई लघुकथावां लिखी। म्हैं-ई प्रेरित हुय`र अेक पोथी नैड़ी लघुकथावां लिखी। म्हारै कनै जातरा संस्मरण तो कोनी हा, पण नान्हीं-नान्हीं घटनावां नै सलीकै सूं सजाय`र 'संस्मरण` एक पोथी नैड़ा लिख मेल्या। ओ योगदान दुर्गेश नै है।<br />आं कैंवतां घणो हरख हुवै कै प्रयास संस्थान, चूरू री पैली साहित्यिक गोष्ठी 'पोथी चर्चा` (डौळ उडीकती माटी-पूर्ण शर्मा पूरण) रो 30 नवम्बर, 2004 ई. नै संयोजन दुर्गेशजी ई करयो।<br />दिसम्बर-2005 रो 'राजस्थानी साहित्यिक समारोह` जठै सक्रियता लेय`र आयो बठै-ई कीं मानवीय दुर्बलतावां ई लेय`र आयो। दुर्गेशजी अर साथ्यां सूं बेबाक बात-ई हुयी पण हुवणी ही जकी हुयगी। एक भलो, सीधो-साधो सज्जन, साफ दिल मिनख जाळ सूं निकळ कोनी सक्यो। दोख देवां तो ई किनै....?<br />वो दिन याद है जद म्हारा वकील साथी भाई राजेन्द्र राजपुरोहित फोन कर`र बात दबावंतां थकां बूझण रै मिस सूचना दीवी कै दुर्गेशजी रो एक्सीडेण्ट (पैड़यां सूं तिसळग्या) हुयग्यो। के बात हुयी? म्हैं हाथो-हाथ भाई गुरुदास भारती सूं फोन मिलायो तो वां निरासा मांय कैयो, 'रैया कोनी। भरतिया अस्पताल मोर्चरी मांय .....।` विस्वास-ई कोनी हुयो। गुरुदासजी जेड़ै पुख्ता मिनख री बात पछै ई मन नीं डटयो अर अवकाश सैनी रा नम्बर मत्तो-मत्त डायल हुग्या।<br />अस्पताळ पूग्यो.......। और...... सो-कीं सैं-गै। जठै याद आयो, बठै सूचना दीनी.....।<br />शवयात्रा सूं पैली छेकड़ला दरसण अर नश्वर डील चिता नै समर्पित।<br />तारजी माळी रै ढाबै सूं सरू हुयी म्हारी जाणकारी री जातरा 18 नवम्बर, 2007 ई. नै खतम हुयगी।<br />बातां घणी है, कदे ओरूं लिखस्यां।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-75323992732029296792010-05-25T17:59:00.000-07:002010-05-25T18:00:57.893-07:00ऊंची सोच वाला पुरुष<div style="text-align: justify;"><br /><div style="text-align: right; font-weight: bold;">- एडवोकेट धन्नाराम सैनी, चूरू<br /></div><br />दुर्गादत्त दुर्गेश का जन्म एक गरीब-मजदूर परिवार में हुआ। चार बहिनों व दो भाईयों के परिवार में स्व. मेघाराम की चतुर्थ संतान दुर्गादत्त रहे हैं। परिवार ने शिक्षा को छूआ तक नहीं था। सभी अनपढ़ थे तथा केवल मात्र दुर्गेश ने ही शिक्षा के द्वार पर दस्तक दी थी।<br />शुरू से ही धीर, गंभीर व एकाकी प्रकृति के व्यक्ति मेहनत व लगन के आधार विपरीत परिस्थितियों में भी मैट्रिक परीक्षा अच्छे नम्बरों से पास की। बाद में बी.ए. की और कलेक्ट्रेट, चूरू में उनको अपनी मेहनत के बल पर कनिष्ठ लिपिक के पद पर नियुक्ति मिली।<br />लेखन मे रुचि उनकी हमेशा से रही थी। नौकरी के साथ-साथ लेखन कार्य करते थे। परिवार-रिश्तेदारी के कार्यक्रमों, आयोजनों से बेखबर रहकर पूरा समय लेखन में ही देते थे। पारिवारिक आयोजनों के लिए समय निकालने में उनका कोई उत्साह नहीं था। वे कभी-कभी बादलों में बिजली की चमक की तरह उपस्थिति दर्ज करवा जाते थे फिर भी उनकी उपस्थिति से परिवारजन अति उल्लास से हर्षित हो जाते थे। वे बहुत तोल-तोलकर बोलते थे। वे बहुत ही कम बोलते थे। परिवारजन भी उनकी लेखन की गंभीरता को गहराई को देखते हुए उनको कभी विचलित करने का प्रयास नहीं किया। उनकी प्रेरणा व सहयोग से रिश्तेदारों ने अपने कदम बढ़ाये लेकिन उन्होंने कभी अपने परिवार की और मुड़कर नहीं देखा। वो सामान्य पुरुष से बहुत अलग थे। उनकी सोच बहुत ही ऊंचाईयां छूती थी। और वे असमय ही चले गये।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-66923540090503761232010-05-25T17:58:00.001-07:002010-05-25T17:58:58.209-07:00तुम<div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- मोहन चक्र सोनी, चूरू</span><br /></div><br /><div style="text-align: center;">तुम, तुम्हारा अक्स<br />तुम्हारे मसाइल, तुम्हारी मौजूदगी<br />तुम्हारी आंखों में हमारे लिये चमक<br />हमें, अब भी<br />टोकती है, रोकती है<br />और कहती है<br />तुम्हारे गांव की आबो-हवा<br />कि मैं अब भी हूं<br />तुम्हारे शेरों में, कहानियों में<br />जहन में, वहम में<br />कहती हुई कि जब भी उभरेगी<br />लेखनी से मरुधरा की सौंधी गंध<br />मैं वहीं<br />किसी टीले पर, खेजड़ी के पास<br />साफ नजर आऊंगा<br />मैं चूरू को छोडकर<br />कहां जाऊंगा<br />मैं तुम्हें छोडकर कहां जाऊंगा......<br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-20939995447822235182010-05-25T17:56:00.000-07:002010-05-25T17:57:44.155-07:00काव्याभिव्यक्ति<div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">पीयूष शर्मा पारस, चूरू</span><br /></div><br /><div style="text-align: center;">बाकी रह गए निशां, तेरी याद के।<br />इस दुनियावी, रेत के समंदर पर।।<br /><br />बहुत कुछ सीखा गया, तेरा साथ।<br />चलने के लिए इस, रेत के समंदर पर।।<br /><br />खे रहा हूं नाव खुद ही, बिना तेरे।<br />दिशाहीन की तरह, रेत के समंदर पर।।<br /><br />चले गए क्यूं मुझे, छोड़कर अकेला।<br />भटकने के लिए, इस रेत के समंदर पर।।<br /><br />अधूरापन जो दे गए हो, कैसे हो पूरा।<br />आंख भर आती है, जब सोचता हूं बैठकर<br />इस रेत के समंदर पर........ ।।<br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-59602870437869012632010-05-25T17:54:00.000-07:002010-05-25T17:56:37.623-07:00काव्याभिव्यक्ति<div style="text-align: center;"><span><span></span></span><br /><br /></div><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">- </span><span style="font-weight: bold;">आशीष</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गौत्तम आशु</span><span style="font-weight: bold;">, </span><span style="font-weight: bold;">चूरू</span><br /></div><div style="text-align: center;"><br /><span>थम</span> <span>गई</span> <span>लेखनी</span>, <span>शब्द</span> <span>हो</span> <span>गए</span> <span>मौन।</span><br /><span>मझधार</span> <span>में</span> <span>छोड़कर</span>,<br /><span>आप</span> <span>क्यों</span> <span>हो</span> <span>गए</span> <span>अंतर्ध्यान।।</span><br /><br /><span>क्यों</span> <span>हो</span> <span>गए</span> <span>अंतर्ध्यान</span>,<br /><span>याद</span> <span>आपकी</span> <span>बहुत</span> <span>आती</span> <span>है।</span><br /><span>सूरत</span> <span>मस्तिष्क</span> <span>में</span> <span>घूमती</span> <span>है</span>,<br /><span>आंख</span> <span>बार</span>-<span>बार</span> <span>सजल</span> <span>हो</span> <span>जाती</span> <span>है।।</span><br /><br /><span>कहे</span> '<span>आशु</span>` <span>आपके</span> <span>जाने</span> <span>से</span>,<br /><span>साहित्य</span> <span>में</span> <span>विरानी</span>-<span>सी</span> <span>छाई</span> <span>है।</span><br /><span>जीवनभर</span> <span>न</span> <span>भूल</span> <span>पाएंगे</span> <span>आपको</span>,<br /><span>छवि</span> <span>दिल</span> <span>में</span> <span>आपकी</span> <span>इस</span> <span>कदर</span> <span>समाई</span> <span>है।।</span><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-42124223657255520262010-05-25T17:50:00.000-07:002010-05-25T17:53:58.397-07:00मानस पटल की स्मृतियां<div style="text-align: justify;"><div style="text-align: right;">- नरेन्द्र शर्मा, चूरू<br /></div><br />कृषि प्रधान भारत देश, रणबांकुरों की भूमि राजस्थान प्रदेश के थली़ की माटी की एक महक जिसने ग्राम्य जीवन से जुड़ी सांस्कृतिक सृजनशील साहित्य विधा को न केवल जीवन्त बनाया बल्कि जन-जीवन से जुड़े पक्षों को सिंचित किया। वे जाने क्यों चले गए, यह मैं अभी तक नहीं समझ पाया हूं।<br />साहित्य सृजन की गति को बनाए रखने वाले दुर्गेश का शरीर भले ही नहीं रहा हो लेकिन वे आज भी मेरे ईद-गिर्द घूमते नजर आते हैं। उनसे मेरा मिलना जब पहली बार हुआ तो मैं सहसा विश्वास नहीं कर पाया कि जिनके बारे में मैंने सुना वे इतने सरल व्यक्तित्व हैं। बात शायद सन् 1990 के आसपास की होगी जब पहली बार दुर्गेश मेरे सम्पर्क में आए। वे नई पीढ़ी को साहित्य सृजन से जोड़ने में प्रयत्नशील रहे। युवा और साहित्य उनकी सियोता थी। पहली बार मेरा परिचय दुर्गेश से हुआ तो उन्होंने पत्रकारिता चर्चा में इतना ही कहा, 'पीछे मुड़कर मत देखो। आलोचना होगी, उसे सहजता से लो।` तभी से मैंने उनके इन ध्येय वाक्यों को पकड़े रखा। उनकी प्रेरणा ही रही कि मैं पत्रकारिता क्षेत्र में मनोयोग से काम कर पाया।<br />बाद में तो उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा। बात सन् 1992-93 की होगी। जब उन्होंने सांस्कृतिक गतिविधियों को पंख लगाने की योजना बनाई। इस दौरान तय हुआ कि पूर्व में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम जारी रखा जाए। उस समय श्री बालमुकन्द ओझा जिला सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी थे, उनके व अन्य साथियों के साथ बैठकर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन तय किया। स्वयं ही स्मारिका का प्रकाशन तय किया। इस दौरान उनके साथ काम करने का अवसर मिला। मुझे सौंपे गए दायित्वों का मैंने सम्यक निर्वहन किया तो वे इतने अभिभूत हो गए कि बाद में जब भी मिलते तो मुझे धन्यवाद देते रहते। यह सिलसिला कई दिनों चला।<br />काम की पूजा एवं साहित्य की साधना के पुजारी दुर्गेश के साथ बीते पलों को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि वे आज भी मुझसे बातें कर रहे हैं। समाचार लेखन व साहित्य सृजन के अंतर को समझने वाले दुर्गेश की तीक्ष्ण दृष्टि मुझे सदैव स्मरण रहेगी।<br />एक बार उन्होंने 'नवांकुर` काव्य संग्रह सृजन का मन बनाया। उन्हें कहीं से पता चला कि मेरा पुत्र पकंज भी कुछ लिखता है। वे मेरे पास आए और पूछा, ''पकंज ने कोई कविता लिखी है क्या?` मैंने कहा, 'हां`। तो उन्होंने तपाक से कहा, 'मुझे उसकी रचना व फोटो दो।` मैं भूल गया लेकिन वे जब भी मिलते फोटो व रचना मांगते रहे। आखिर राजस्थान पत्रिका के मेरे कार्यालय में आ गए और पंकज की कविता व फोटो लेकर ही गए। कितनी प्रोत्साहन की सोच थी उनकी। वे किसी न किसी बहाने नवांकुरों को साहित्य से जोड़ना चाहते थे। वर्तमान बदलते युग में क्या कोई ऐसा प्रयास करता है?<br />वर्ष 2006 में उन्होंने साहित्य का एक आयोजन करवाया, इसी एक कार्यक्रम में ही नहीं अनेकों कार्यक्रम में उन्होंने मुझसे सहयोग की अपेक्षा की थी। वे आत्मीय स्नेह रखते थे, फिर भी आदेश देने में वे सदा संकोची रहे। इसी कारण उन्होंने संकोच करते हुए निधि सहयोग की अपेक्षा की थी। मैंने जब सहर्ष स्वीकार किया तो वे गदगद हो गए और बोले, 'तुम पहले व्यक्ति हो, जो इतनी सहजता से मेरी बात रख रहे हो।`<br />दो दशकों में उनसे मिलने-जुलने के सफर में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे मेरे लिए प्रेरणा के दीपक हैं इसीलिए उनकी स्मृति मेरे मानस पटल पर हर दिन छाई रहती है।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2245548521730084529.post-43498360024760300252010-05-25T17:46:00.000-07:002010-05-25T17:50:08.456-07:00मेरे दामाद : दुर्गादत्त<div style="text-align: justify;"><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: right;">- रघुनाथप्रसाद सैनी, चूरू<br /></div><br />दुर्गादत्त सिंगोदिया का चूरू के एक साधारण अशिक्षित परिवार में 25 मार्च, 1952 ई. को जन्म हुआ। पिता श्री मेघाराम सिंगोदिया और माता श्रीमती चावली देवी की कोख से उत्पन्न इस प्रतिभा पर पूरे क्षेत्र को आगे चलकर नाज हुआ। वे 'दुर्गेश` नाम से ख्यात हुए और साहित्य के लिए उन्होंने काफी काम किया।<br />दुर्गादत्त के परिवार में माता-पिता, चार बहिनें क्रमश: शांति, शिवदेयी, धन्नी, शारदा एव दो भाई गिरधारीलाल व स्वयं दुर्गादत्त उर्फ दुर्गेश शामिल थे। मेरी पुत्री चंद्रकला की शादी दुर्गादत्त से सम्पन्न करवाई गयी। उनसे तीन पुत्रियां मंजू, सुशीला, कविता एवं एक पुत्र अमित कुमार हुए।<br />दुर्गादत्त का विद्यार्थी काल आर्थिक कठिनाईयों में ही बीता। फिर भी अपने दृढ़ निश्चय के साथ वे साहित्य क्षेत्र में कूदे। पत्रकारिता भी की। फिर वे राजकीय सेवा में आए। उन्होंने कर्तव्यनिष्ठा और पाबंदी के साथ सेवा की। सादा जीवन-उच्च विचार रखते हुए ईमानदारी से अपनी सेवाएं दी। सरकारी सेवा करते हुए उन्होंने साहित्य क्षेत्र में अपना विशेष स्थान बनाया। पहनावे में सादा चोला-पायजामा व सैंडिल टाईप चप्पल पहनना वे पसंद करते थे। चूरू के प्रतिष्ठित कलाकार मालजी की कलाकृति चंदन का बादाम बनाने की पहुंच उन्होंने अपने आलेखों के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तक करवाई।<br />दुर्गादत्त कई बार जिला कलक्टर द्वारा स्वतंत्रता-गणतंत्रता दिवसों पर सम्मानित हुए। साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने पुरस्कार प्राप्त किए।<br />मुझे याद है कि जब मैंने उनके कुशाग्र बुद्धि होने का जिक्र सुना तो एक बेटी के बाप होने के नाते दृष्टि उधर गई। मैं मध्यस्थ रिश्तेदार के माध्यम से उनके यहां गया। रिश्ते की बात चलाई तो उनके पिताजी बोले, 'दुर्गो जाणै।` उनकी माताजी से बात की तो वही उनका जवाब था। अंतत: हमने दुर्गादत्त से बात की, तो उन्होंने कोई रुचि नहीं दिखाई। जोर देकर हमने पूछा, ''क्या बात है, आपको पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए क्या? मेरी लड़की कम पढ़ी-लिखी है क्या?`` तब उनकी जवाब था, ''नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे तो मेरी मां की सेवा करनी वाली लड़की चाहिए। वैसे मैं अभी पढ़ना चाहता हूं।``<br />मैंने कहा, ''आप पढ़ते रहिए, हम भी आपका सहयोग करेंगे। और रही मां की सेवा की बात, सो मेरी लड़की की तरफ से कभी कोई शिकायत नहीं आएगी, मैं आश्वस्त करता हूं।``<br />भगवान की मर्जी से रिश्ता बना और मुझे गर्व है कि मेरे आश्वासन को बड़े भले ढंग से मेरी बेटी ने पूरा किया।<br />वे बहुत कम बोलते थे। हमारे यहां होने वाले शादी-विवाह-समारोहों में बस दर्शन देने भर की शिरकत करते थे। बहुत कम अवसर रहे जब वे रात को हमारे यहां रुके। कोई बात होती तो हां, हां कहते और गर्दन सहमति की हिला देते। उन्होंने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।<br />उनके असामयिक निधन (18 नवम्बर, 2007 ई.) से तो पूरे परिवार-रिश्तेदारों-मित्रों पर व्रजपात हुआ। इतने भले इंसान को इतनी जल्दी नहीं जाना चाहिए था।<br /><br /></div>Unknownnoreply@blogger.com0