मेरे दामाद : दुर्गादत्‍त


- रघुनाथप्रसाद सैनी, चूरू

दुर्गादत्‍त सिंगोदिया का चूरू के एक साधारण अशिक्षित परिवार में 25 मार्च, 1952 ई. को जन्म हुआ। पिता श्री मेघाराम सिंगोदिया और माता श्रीमती चावली देवी की कोख से उत्पन्न इस प्रतिभा पर पूरे क्षेत्र को आगे चलकर नाज हुआ। वे 'दुर्गेश` नाम से ख्यात हुए और साहित्य के लिए उन्होंने काफी काम किया।
दुर्गादत्‍त के परिवार में माता-पिता, चार बहिनें क्रमश: शांति, शिवदेयी, धन्नी, शारदा एव दो भाई गिरधारीलाल व स्वयं दुर्गादत्‍त उर्फ दुर्गेश शामिल थे। मेरी पुत्री चंद्रकला की शादी दुर्गादत्‍त से सम्पन्न करवाई गयी। उनसे तीन पुत्रियां मंजू, सुशीला, कविता एवं एक पुत्र अमित कुमार हुए।
दुर्गादत्‍त का विद्यार्थी काल आर्थिक कठिनाईयों में ही बीता। फिर भी अपने दृढ़ निश्चय के साथ वे साहित्य क्षेत्र में कूदे। पत्रकारिता भी की। फिर वे राजकीय सेवा में आए। उन्होंने कर्तव्यनिष्ठा और पाबंदी के साथ सेवा की। सादा जीवन-उच्च विचार रखते हुए ईमानदारी से अपनी सेवाएं दी। सरकारी सेवा करते हुए उन्होंने साहित्य क्षेत्र में अपना विशेष स्थान बनाया। पहनावे में सादा चोला-पायजामा व सैंडिल टाईप चप्पल पहनना वे पसंद करते थे। चूरू के प्रतिष्ठित कलाकार मालजी की कलाकृति चंदन का बादाम बनाने की पहुंच उन्होंने अपने आलेखों के माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तक करवाई।
दुर्गादत्‍त कई बार जिला कलक्टर द्वारा स्वतंत्रता-गणतंत्रता दिवसों पर सम्मानित हुए। साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने पुरस्कार प्राप्त किए।
मुझे याद है कि जब मैंने उनके कुशाग्र बुद्धि होने का जिक्र सुना तो एक बेटी के बाप होने के नाते दृष्टि उधर गई। मैं मध्यस्थ रिश्तेदार के माध्यम से उनके यहां गया। रिश्ते की बात चलाई तो उनके पिताजी बोले, 'दुर्गो जाणै।` उनकी माताजी से बात की तो वही उनका जवाब था। अंतत: हमने दुर्गादत्‍त से बात की, तो उन्होंने कोई रुचि नहीं दिखाई। जोर देकर हमने पूछा, ''क्या बात है, आपको पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए क्या? मेरी लड़की कम पढ़ी-लिखी है क्या?`` तब उनकी जवाब था, ''नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे तो मेरी मां की सेवा करनी वाली लड़की चाहिए। वैसे मैं अभी पढ़ना चाहता हूं।``
मैंने कहा, ''आप पढ़ते रहिए, हम भी आपका सहयोग करेंगे। और रही मां की सेवा की बात, सो मेरी लड़की की तरफ से कभी कोई शिकायत नहीं आएगी, मैं आश्वस्त करता हूं।``
भगवान की मर्जी से रिश्ता बना और मुझे गर्व है कि मेरे आश्वासन को बड़े भले ढंग से मेरी बेटी ने पूरा किया।
वे बहुत कम बोलते थे। हमारे यहां होने वाले शादी-विवाह-समारोहों में बस दर्शन देने भर की शिरकत करते थे। बहुत कम अवसर रहे जब वे रात को हमारे यहां रुके। कोई बात होती तो हां, हां कहते और गर्दन सहमति की हिला देते। उन्होंने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया।
उनके असामयिक निधन (18 नवम्बर, 2007 ई.) से तो पूरे परिवार-रिश्तेदारों-मित्रों पर व्रजपात हुआ। इतने भले इंसान को इतनी जल्दी नहीं जाना चाहिए था।

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