मानस पटल की स्मृतियां

- नरेन्द्र शर्मा, चूरू

कृषि प्रधान भारत देश, रणबांकुरों की भूमि राजस्थान प्रदेश के थली़ की माटी की एक महक जिसने ग्राम्य जीवन से जुड़ी सांस्कृतिक सृजनशील साहित्य विधा को न केवल जीवन्त बनाया बल्कि जन-जीवन से जुड़े पक्षों को सिंचित किया। वे जाने क्यों चले गए, यह मैं अभी तक नहीं समझ पाया हूं।
साहित्य सृजन की गति को बनाए रखने वाले दुर्गेश का शरीर भले ही नहीं रहा हो लेकिन वे आज भी मेरे ईद-गिर्द घूमते नजर आते हैं। उनसे मेरा मिलना जब पहली बार हुआ तो मैं सहसा विश्वास नहीं कर पाया कि जिनके बारे में मैंने सुना वे इतने सरल व्यक्तित्व हैं। बात शायद सन् 1990 के आसपास की होगी जब पहली बार दुर्गेश मेरे सम्पर्क में आए। वे नई पीढ़ी को साहित्य सृजन से जोड़ने में प्रयत्नशील रहे। युवा और साहित्य उनकी सियोता थी। पहली बार मेरा परिचय दुर्गेश से हुआ तो उन्होंने पत्रकारिता चर्चा में इतना ही कहा, 'पीछे मुड़कर मत देखो। आलोचना होगी, उसे सहजता से लो।` तभी से मैंने उनके इन ध्येय वाक्यों को पकड़े रखा। उनकी प्रेरणा ही रही कि मैं पत्रकारिता क्षेत्र में मनोयोग से काम कर पाया।
बाद में तो उनसे मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा। बात सन् 1992-93 की होगी। जब उन्होंने सांस्कृतिक गतिविधियों को पंख लगाने की योजना बनाई। इस दौरान तय हुआ कि पूर्व में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम जारी रखा जाए। उस समय श्री बालमुकन्द ओझा जिला सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी थे, उनके व अन्य साथियों के साथ बैठकर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन तय किया। स्वयं ही स्मारिका का प्रकाशन तय किया। इस दौरान उनके साथ काम करने का अवसर मिला। मुझे सौंपे गए दायित्वों का मैंने सम्यक निर्वहन किया तो वे इतने अभिभूत हो गए कि बाद में जब भी मिलते तो मुझे धन्यवाद देते रहते। यह सिलसिला कई दिनों चला।
काम की पूजा एवं साहित्य की साधना के पुजारी दुर्गेश के साथ बीते पलों को याद करता हूं तो मुझे लगता है कि वे आज भी मुझसे बातें कर रहे हैं। समाचार लेखन व साहित्य सृजन के अंतर को समझने वाले दुर्गेश की तीक्ष्ण दृष्टि मुझे सदैव स्मरण रहेगी।
एक बार उन्होंने 'नवांकुर` काव्य संग्रह सृजन का मन बनाया। उन्हें कहीं से पता चला कि मेरा पुत्र पकंज भी कुछ लिखता है। वे मेरे पास आए और पूछा, ''पकंज ने कोई कविता लिखी है क्या?` मैंने कहा, 'हां`। तो उन्होंने तपाक से कहा, 'मुझे उसकी रचना व फोटो दो।` मैं भूल गया लेकिन वे जब भी मिलते फोटो व रचना मांगते रहे। आखिर राजस्थान पत्रिका के मेरे कार्यालय में आ गए और पंकज की कविता व फोटो लेकर ही गए। कितनी प्रोत्साहन की सोच थी उनकी। वे किसी न किसी बहाने नवांकुरों को साहित्य से जोड़ना चाहते थे। वर्तमान बदलते युग में क्या कोई ऐसा प्रयास करता है?
वर्ष 2006 में उन्होंने साहित्य का एक आयोजन करवाया, इसी एक कार्यक्रम में ही नहीं अनेकों कार्यक्रम में उन्होंने मुझसे सहयोग की अपेक्षा की थी। वे आत्मीय स्नेह रखते थे, फिर भी आदेश देने में वे सदा संकोची रहे। इसी कारण उन्होंने संकोच करते हुए निधि सहयोग की अपेक्षा की थी। मैंने जब सहर्ष स्वीकार किया तो वे गदगद हो गए और बोले, 'तुम पहले व्यक्ति हो, जो इतनी सहजता से मेरी बात रख रहे हो।`
दो दशकों में उनसे मिलने-जुलने के सफर में मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे मेरे लिए प्रेरणा के दीपक हैं इसीलिए उनकी स्मृति मेरे मानस पटल पर हर दिन छाई रहती है।

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