तुम

- मोहन चक्र सोनी, चूरू

तुम, तुम्हारा अक्स
तुम्हारे मसाइल, तुम्हारी मौजूदगी
तुम्हारी आंखों में हमारे लिये चमक
हमें, अब भी
टोकती है, रोकती है
और कहती है
तुम्हारे गांव की आबो-हवा
कि मैं अब भी हूं
तुम्हारे शेरों में, कहानियों में
जहन में, वहम में
कहती हुई कि जब भी उभरेगी
लेखनी से मरुधरा की सौंधी गंध
मैं वहीं
किसी टीले पर, खेजड़ी के पास
साफ नजर आऊंगा
मैं चूरू को छोडकर
कहां जाऊंगा
मैं तुम्हें छोडकर कहां जाऊंगा......

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