पीयूष शर्मा पारस, चूरू
बाकी रह गए निशां, तेरी याद के।
इस दुनियावी, रेत के समंदर पर।।
बहुत कुछ सीखा गया, तेरा साथ।
चलने के लिए इस, रेत के समंदर पर।।
खे रहा हूं नाव खुद ही, बिना तेरे।
दिशाहीन की तरह, रेत के समंदर पर।।
चले गए क्यूं मुझे, छोड़कर अकेला।
भटकने के लिए, इस रेत के समंदर पर।।
अधूरापन जो दे गए हो, कैसे हो पूरा।
आंख भर आती है, जब सोचता हूं बैठकर
इस रेत के समंदर पर........ ।।
इस दुनियावी, रेत के समंदर पर।।
बहुत कुछ सीखा गया, तेरा साथ।
चलने के लिए इस, रेत के समंदर पर।।
खे रहा हूं नाव खुद ही, बिना तेरे।
दिशाहीन की तरह, रेत के समंदर पर।।
चले गए क्यूं मुझे, छोड़कर अकेला।
भटकने के लिए, इस रेत के समंदर पर।।
अधूरापन जो दे गए हो, कैसे हो पूरा।
आंख भर आती है, जब सोचता हूं बैठकर
इस रेत के समंदर पर........ ।।
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