वास्तविकता में जीने वाले थे दुर्गेशजी


-जयप्रकाश सैनी, चूरू

दुर्गेशजी नहीं रहे...... जैसे हमारी नींव का बड़ा-सा भाग नहीं रहा! कैसे खड़े रह पाएंगे हम अपनी भव्यता के साथ?
पहली रचना दिखाने के बाद उनके कहे हुए शब्द, 'बहुत अच्छी है, लिखते रहो।` कैसे विस्मृत हो सकते हैं। और अत्यधिक रचनात्मक जुड़ाव के कारण बाधित होते अध्ययन के मद्दे नजर उनके शब्द, 'पहले अपना केरियर बनाओ, उसके बाद साहित्य पूर्णता के साथ अपनाओं। फिलहाल रुचि बरकरार रखो बस....।`
कैसा तालमेल और निर्देशन था उनमें। वे चाहते थे कि युवा साहित्य से भी जुड़ा रहे और अपने केरियर से भी न टूटे। बस यही विशेषता होती है मार्गदर्शक में।
आगे चलकर सत्य का भान होने पर ऐसे गुरु के प्रति ही शिष्य नतमस्तक होते हैं। सामयिक और निज लाभ से दिया ज्ञान कहां सम्मान करवा पाता है? वह तो समय के साथ भूला दिया जाता है। लेकिन शाश्वत प्रकृति के निर्देश और वास्तविकता में जीने के संदेश कितने लोग दे पाते हैं। बस दुर्गेश जैसे बिरले.......।
रचनात्मकता अगर मेरे में आज जिंदा है तो उसका पूरा श्रेय दुर्गेशजी को है।

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