चार लाइन


- कुमार अजय, घांघू (चूरू)

तेजी से चहलकदमी करते हुए चूरू कलेक्‍ट्रेट परिसर में घुसता हूं और फिर उसी तीव्रता से सीढ़ियां चढ़ते हुए इमारत की ऊपरी मंजिल पर उतर-पश्चिमी कोने में बने कमरे के बाहर पहुंचता हूं, जहां दुर्गेश बैठा करते हैं। बाहर से ही कमरे में झांकता हूं। आज अपनी कुर्सी पर नहीं हैं-दुर्गेश। लेट हो गये होंगे शायद! अभी पहुंच जायेंगे। रास्ते में होंगे। कमरे में और लोग हैं पर उनसे पूछने की हिम्मत आज नहीं। सो मन ही मन खुद को तसल्ली देकर कुछ मिनट और इंतजार करता हूं। अचानक कुछ और सोचकर चल देता हूं। मैं फालतू ही यहां उडीक रहा हूं। आज दफ्तर आते ही पहुंच गये होंगे- हनुमान आदित्य के पास। कोई नया विचार आया होगा मन में। सो मैं उन्हीं के कमरे की तरफ जा रहा हूं अब। संभव है गैलरी ही टकरा जाएं दुर्गेश। और विचारमग्न चलते हुए ही कहें कि आ जाओ मेरे पीछे-पीछे। पर जाने क्यूं आज गैलरी भी सूनी है। आदित्यजी के साथ बातें गहरा गई होंगी। शायद वहीं बातों में मशगूल मिलेंगे। इसीलिए उस कमरे के बाहर ठिठककर भीतर झांकता हूं। अन्यमनस्क से बैठे हैं आदित्य। उनसे भी पूछने की हिम्मत नहीं। सो अनमने से कदम लौट आते हैं। कलेक्‍ट्रेट की बालकनी में आकर ठहर जाता हूं। सड़क पर फैले परिसर में भीड़ है। लोग हमेशा की ही तरह भागमभाग में जुटे हैं। जर-जोरू-जमीन के तमाम झंझट यहां पहुंचे हुए हैं। उसी की भागमभाग है। यह वही इमारत है जिसके उस कोने में फक्कड़ संत बैठा करता था। इसी दुनियावी मायाजाल में जकड़ा फिर भी मुक्त। अपनी ही तपस्या-साधना में लीन। वह कोई हंगामेबाज नहीं था, फिर भी उसके न होने पर आज यहां सन्नाटा है। एक खामोशी इस बड़ी इमारत के जर्रे-जर्रे पर चस्पा है। इसी सांय-सांय करते सन्नाटे के बीच बालकनी में खड़ा मैं आसमान की ओर जाती पगडांडी को आंख मूंदकर ताकता हूं। हृदय में जैसे कोई आंधी जली चिता के ढेर की राख को अस्त-व्यस्त कर रही है। उड़ा रही है। आंख से निकला एक आंसू ढुलककर नीचे तक आ पहुंचा है।
दुर्गेश चले गये हैं। एक बड़े समूह के हर एक को अकेला छोड़कर। उनके चले जाने को मन भली-भांति जानता है। पर जानना चाहता नहीं। मानना चाहता नहीं। मन कहता है, इसी गैलरी में अभी आएंगे दुर्गेश। और मुझे यहां बेवकूफों की तरह खड़ा देखकर पीछे से कंधे पर हाथ रखेंगे, कहेंगे कि आज यहां इस तरह क्यों खड़े हो! आओ चाय पीएंगे...। और फिर अपनी मौत की सच्ची खबर उडाने की अपनी शरारत के खुलासे के बाद मुस्कराएंगे। बावजूद ठगे जाने के हम भी इस नई अफवाह पर उछल पड़ेंगे। पर ये शरारत दुर्गेश की प्रकृति नहीं। उनकी सरलता, निर्मलता और गंभीरता में इस खिलंदड़पन की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं। तो फिर........ ?
छले तो गये हैं हम। वह भी निश्लता और निर्माल्य से भरपूर उस संत के द्वारा जिसने शायद ही अपने समूचे जीवन में किसी से छल-व्यवहार किया हो। वे इस तरह रातों-रात अपनी पोटली समेटकर चले जाएंगे, सोचना संभव न था। न अब स्वीकारना संभव है। पर उनकी गैर-मौजूदगी में सारी स्निग्धता गायब है। शब्द सूखे पत्‍तों की तरह खड़खड़ा रहे हैं, लड़खड़ा रहे हैं।
दुर्गेश से मेरी ज्यादतर मुलाकातें इसी इमारत में हुईं। यही वजह है कि जब इस बालकनी से परिसर और परिसर से इस इमारत को देखता हूं तो अनायास ही हृदय में उदासी तैर जाती है। आंखे पनीली हो जाती हैं। बांचता तो उन्हें बचपन से ही रहा था। पर मिलना काफी देर से हो पाया। किसी लेखक के 'खास` और अपने 'आम` होने के बीच के अंतर का अहसास तो एक वजह बना ही इसी देरी का। दूसरा, जब मिलने-मिलाने की उम्र आई तो दूसरे ही झंझावात में फंस गया। गांव भी छूट गया। वापस घांघू आकर जब थोड़ा-बहुत लिखना-छपना शुरू हुआ तो दुर्गेश के पत्र लगातार मिलते। मेरी रचनाओं पर प्रतिक्रिया होती। सो मिलने की इच्छा और भी प्रबल हो गई। फिर भी मुलाकात संयोग से ही हुई। दैनिक भास्कर के दफ्तर में पहले-पहल हुई मुलाकात को सिरे से नहीं पकड़ पा रहा हूं। बाद में उनके दफ्तर में लगातार मुलाकातों का क्रम बन गया। मिलने पर साहित्य चर्चा ही अधिक होती। अपनी योजनाओं और साहित्यिक आयोजनों का जिक्र वे करते। उनकी सक्रियता अभिभूत कर देने वाली थी। साथ ही नवांकुरों के उत्साहवर्द्धन की दिशा में उनके प्रयास भी श्रद्धा पैदा करते हैं। निश्चय ही साहित्यिक आयोजनों तथा औरों को मंच देने में खर्च अपना समय, धन और ऊर्जा यदि वे अपनी ही साहित्य साधना में लगाते तो बहुत कुछ और रच जाते। पर उनके सृजन का संसार विराट था। श्रीसुरेन्द्र सोनी ठीक ही कहते हैं, दुर्गेशजी ने महज शब्द ही नहीं अपित शब्दकार गढ़े।
इसी दौरान बी.एड. के लिए बीकानेर और अखबार की नौकरी में सीकर रहते हुए भी मुझे उनके पत्र लगातार मिलते। पत्र का विषय अमूमन मेरी किसी रचना पर प्रतिक्रिया रहता था या फिर किसी साहित्यिक आयोजन का निमंत्रण। पर एक संदेश हमेशा उपस्थित रहा, 'लिखते रहना।` उनके आग्रह के अनुरूप कभी लिख नहीं पाया। पर जो लिखा, उसके पीछे उनकी प्रेरणा हमेशा रही। ज्यादातर हिन्दी में लिखने के बावजूद उनके प्रबल आग्रह और प्रेरणा के चलते ही राजस्थानी कविता संग्रह तैयार कर पाया। मेरे अखबार की नौकरी ज्वाइन करने पर उनकी फिक्र थी कि अब लेखन के लिए कम ही समय मिल सकेगा। साथ ही आगाह भी किया कि साहित्य के लिये समय निकालता रहूं। समाचार लिखते-लिखते जब कोई कविता या लघुकथा मैंने लिखी तो उनकी प्रसन्नता भरी प्रतिक्रिया अवश्य ही मुझे मिलती। बतौर सरकारी सेवा में मेरे चयन से अधिक खुशी उन्हें इस बात की हुई कि अब लेखन के लिये अधिक समय मिल सकेगा।
बीते चौदह नवम्बर को कुलिश स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार समारोह के सिलसिले में जयपुर था। दूसरे दिन राजस्थान पत्रिका में मेरा फोटो देखकर उन्होंने मुझे बधाई तो दी ही, साथ ही चूरू आते ही मिलने के लिए कहा। मैं चार-पांच दिन जयपुर रहा। हमेशा की तरह इन दिनों भी उनके एसएमएस लगातार आते रहे। अठारह की सुबह ट्रेन से चूरू आते समय उनका एसएमएस मिला। एसएमएस कुछ यूं था-
''अगर आपकी दुनियां आसमान है, तो दोस्त आपके सितारें होंगे। पर उन सितारों में हमें न ढूंढ़ना, क्योंकि आपकी तमन्ना पूरी करने वाले हम टूटते तारें होंगे।``
उन्होंने खुद को हमारी ख्वाहिशों के लिये टूटने वाला तारा बताया। फिर भी जो होने वाला था, उसकी कल्पना भी संभव न थी। एकाध दिन में ही उनसे लम्बी मुलाकात की इच्छा थी। पर अठारह की रात इस तारे को तोड़कर ही गुजरी। भावुकता में पीछे लिख गया हूं, दुर्गेश छलकर चले गये। हमें ठगा-सा छोड़ गये। पर यह आरोप भी मुनासिब नहीं। वे जिस सरलता के साथ जिये थे, उसी सरलता से उन्होंने तो कह ही दिया था कि तारा टूट रहा है। हां, सरलता एक हद पर जाकर इतनी जटिल, मुश्किल और असहनीय हो जाती है, यह बड़ी कीमत पर ही सिखा पाये दुर्गेश। मुझे ही नहीं यह एसएमएस उन्होंने अपने कई मित्रों को किया। अंतिम संस्कार से लौटते वक्त श्री रियाजत अली खान ने भी वह एसएमएस भाई दुलाराम सहारण को दिखाया था। मैंने भी यह एसएमएस उन्हें दिखाया।
आखिरी छह महीनों में उनके एसएमएस खूब आते थे। मैं उन्हें नहीं भेज पाता, तो वे 'चार लाइन भेजो` लिखने को पुन: कहते। जवाब में मुझे तुरंत लिखना पड़ता। उनका आखिरी एसएमएस आज भी मेरे मोबाइल में सुरक्षित है परंतु एसएमएस के इस 'आखिरीपन` को मन मंजूर नहीं करता। मन कहता है, अभी एसएमएस की टोन पर थिरकेगा मोबाइल। इनबॉक्स पर हूं। उन्हीं का मैसेज है- 'चार लाइन तो भेजो।` निरुत्‍तर आंखों से फिर एक आंसू निकलकर मोबाइल स्‍क्रीन पर फैल गया है। शब्द धुंधला रहे हैं.......... ।

No comments:

Post a Comment