पहली मुलाकात


- डॉ. रामकुमार घोटड़, राजगढ़ (चूरू)

सन् 1991-92 की बात होगी। मैंने एक पत्रिका में दुर्गेशजी की लघुकथा एवं एक समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ी। मेरा लेखन अधिकतर लघुकथा विधा पर ही रहा है अत: इतने नजदीकी निवासी (चूरू) लघुकथाकार का नाम देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने इस संदर्भ में एक पत्र 'महाराजा होटल, स्टेशन रोड, चूरू` के पते पर लिखा। कुछ दिन बाद उनका एक स्नेहिल पत्र व साथ में 'काळो पाणी` व 'धूल की धरोहर` पुस्तकें मिली। मुझे बहुत अच्छा लगा। काळो पाणी की लघुकथाएं निस्संदेह अच्छी लगी ही लेकिन मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया धूल की धरोहर की कहानियों ने। जिसमें ग्रामीण परिवेश के पात्रों के साथ टीले, फोग, खींप, खेजड़ी, कैर-जाल का सटीक विवरण है। इन कहानियों को पढ़ते समय मुझे यूं लगा कि ये मेरे आसपास व मेरे गांव की ही कहानियां है। मेरा बचपन आंखों के आगे घूमने लगा और ऐसा अहसास हो रहा था जैसे कि इन कहानियों में मैं भी कहीं न कहीं हूं। इन कहानियों ने मुझे दुर्गेशजी से जल्दी मिलने की इच्छा जागृत कर दी। लेकिन संयोगवंश मिल नहीं पाया।
सन् 1994 में राजस्थान सरकार द्वारा मेरा चयन उच्च अध्ययन हेतु कर लिये जाने के कारण मैं स्त्री रोग एवं प्रसूति विशेषज्ञ कोर्स हेतु बीकानेर चला गया। बीकानेर एक साहित्यिक गढ़ है। मेरी सबसे पहले मुलाकात उस समय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत श्री बुलाकी शर्मा से हुई। तब बुलाकीजी ने कहा, 'अच्छा आप चूरू के रहने वाले हो तो आप दुर्गेशजी को तो जानते हीं होंगे। वो एक अच्छे लेखक हैं। तब मुझे अपना आलस्य खला कि समय निकालकर मैं दुर्गेशजी से क्यों नहीं मिला।
फिर बीकानेर के साथियों से धीरे-धीरे परिचय होता गया। लगभग चार वर्ष के अध्ययन के दौरान मैं बीकानेर रहा। तब यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, मालचंद तिवाड़ी, नीरज दइया, हरदर्शन सहगल, भवानी शंकर व्यास विनोद के मैं निकट आया एवं इनसे आत्मीय संबंध बन गये। श्री हरीश भादानी, नंदकिशोर आचार्य, शिवराज छंगाणी, लक्ष्मीनारायण रंगा से परिचय भर ही हो पाया। जब इनसे मेरा शुरूआत में परिचय हुआ तब इन्होंने भी मुझसे कहा, 'अच्छा आप चूरू के रहने वाले हो, चूरू, दुर्गेशजी वाला चूरू। आप तो उनसे जरूर मिलते रहे होंगे। ऐसे भले आदमी के सान्निध्य में रहकर साहित्यिक विचार-विमर्श तो होता ही रहा होगा।` मैं मुस्करा भर रह जाता।
सन् 1998 में कोर्स पूर्ण होने पर मेरी पोस्टिंग राजगढ़ (चूरू) कर दी गयी। संस्थान का प्रभारी होने के नाते मुझे जिला मुख्यालय पर विभागीय मीटिंग हेतु जाना होता था। हर बार मैं इसी प्रयास में रहता कि मीटिंग के बाद दुर्गेशजी से भी मिलूं। लेकिन कभी समयाभाव व कभी दुर्गेशजी के कार्यालय की सही जानकारी न होने व कभी परेशानी भरा माहौल, संकोचवश मिल न सका।
सन् 1999 के एक दिन जब विभागीय मीटिंग से जल्दी ही मुक्त हो गये तो मैंने दुर्गेशजी से मिलने का मन बनाया। हिम्मत करके एक कर्मचारी से दुर्गेशजी के कार्यालय के विषय में पूछा। उस व्यक्ति ने इस ढंग से उनके कार्यालय का रास्ता व बैठने की जगह बताई जैसे गहरी जानकारी रखने वाला नक्शे पर हू-ब-हू इंगित करता है। मैं उसके बताए अनुसार जिलाधीश कार्यालय की दूसरी मंजिल में गया। पतली-सी गैलरी से होकर बायें हाथ की तरफ एक कमरे के दरवाजे पर गया तो देखा कि वहां दो कर्मचारी बैठे हैं। एक, गेट के पास, दूसरा, आगे की ओर। एक छोटा-सा कमरा, आलमारियों व लम्बी-लम्बी टेबल से ठसाठस भरा हुआ। दोनों को देखकर मैंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मुंह से बुदबुदाया, 'दुर्गेशजी?` तब आगे की ओर बैठा हुआ शख्स खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन स्वीकारते हुए कहा, 'दुर्गेश मैं ही हूं।` मैंने अपना परिचय दिया। तब दुर्गेशजी ने मेरे से हाथ मिलाते हुए कहा, 'अच्छा! डॉ. रामकुमार घोटड़ आप हैं। पहली बार मुलाकात हुई है आज। नाम भर जानता था। अच्छा लगा कि आप आये हो। आओ! बैठो।` फिर इधर-उधर देखकर वे झिझक से गये। उस कमरे में बैठने के लिए कुर्सी रखने की जगह ही नहीं थी। तब उन्होंने अपने साथी को, 'मैं आता हूं।` कहकर मेरा हाथ पकड़ते हुए बाहर आये। फिर हम दोनों गैलरी से सीढ़ियां उतरकर कलेक्टघ्ेट कार्यालय के बाहर लगी चाय की थड़ियों पर आकर बैठ गये।
हमने वहां नमकीन एक साथ ली और घण्टे भर बैठे रहे। इधर-उधर की, अपने-आपकी व साहित्य संबंधी बातें की। मैंने भी उन्हें बीकानेर के साथियों व उनके प्रति जुड़ाव व श्रद्धा की बात बताई। मेरे मन में आ रहा था कि इतना बड़ा नाम और इतनी सादगी, सरलता। जहां भी मैं साहित्यिक गोष्ठियों में गया या साहित्यिक साथियों से मिला वे राजगढ़ के नाम को अनसुना करते हुए चूरू का नाम आते ही मुझसे कहते, 'अच्छा चूरू से आये हो, दुर्गेशजी कैसे हैं? चूरू तो दुर्गेशजी वाला ही है ना।` जिस नाम के आगे ऐसी उपमा आती हो वा आप मेरे सामने बैठा है।
वे एक बंद गले के कमीज व पायजामा पहने साधारण, सामान्य-सी वेशभूषा में बैठे थे। बात करते समय कम बोलना व सार की बात कहना, हंसी-मजाक की बात में भी होंठो पर सिर्फ मुस्कराहट, प्रत्येक बार बड़े नाम से मुझे संबोधित करके बोलना। उनके आत्मीय व्यवहार व बात करने की शैली ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मिलने के बाद मुझे अफसोस हुआ कि मुझे तो इनसे पहले ही मिल लेना चाहिए था।
दुर्गेशजी के हंसने का ढंग भी अलग ही था। होंठो पर मुस्कराहट के साथ आंखों में खुशी का इजहार के संकेतों से ही आभास होता था कि वे हंस रहे है। मैंने कभी भी उनके होंठ खोलकर दांत दिखाने वाली ठहाके भरी हंसी हंसते नहीं देखा। लगभग एक दशक मैं उनके सम्पर्क में रहा हूं।
वे सादगी पूर्ण जीवन जीने वाले एक विचारशील व्यक्ति थे। स्वयं को यथा स्थान रखकर हम उम्र एवं युवा साहित्यकारों को आगे लाने के सकारात्मक सोच के साहित्यकार रहे हैं। वे गुटबाजी को नजर अंदाज करते हुए अपने-पराये सभी का सम्मान करने वाले विशिष्ट जीवनशैली के धनी थे।
अब भी चूरू शहर वैसा ही है। वही सड़के, वही थड़ियां, वही कार्यालय व साथी। भीड़ भरे बाजार। पीं-पीं का वैसा ही स्वर। फिर भी न जाने क्यों, जब भी चूरू शहर में जाता हूं तब मुझे एक कमी-सी अखरती है, दिल में एक अजीब-सी टीस उठती है कि मेरा कुछ खो गया है। अकेलेपन का अहसास टीसने लग जाता है........ दूर कहीं दूर तक मेरी नजरें मायूस-सी लौटकर मुझे प्रकृति के सनातन सत्य का अहसास करवा देती हैं।

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